गोत्र

एक गोत्र में विवाह के बारे में

गोत्र का जाट समाज में अपना अलग महत्व है. जाट समाज में 10 500 लगभग गोत्र माने गये लकिन कुछ जगह गोत्र 5200 से ज्यादा माने गये है गोत्र उन लोगों को संदर्भित करता है जिनका वंशज एक आम पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है.आज भी यदि कहीं संयुक्तपरिवार देखने को मिलते हैं तो वो है है जाट समाज जो गावो में बसा हुआ हैऔर जाटों में आज भी बड़े बूढों की बात को सम्मान मिलता है

व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पणिनी में की गोत्र परिभाषा है 'अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्' (4.1.162), अर्थात 'गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली संतान्. गोत्र का संबंध रक्त से है, जाटों में एक गोत्र विवाह करना निषेध है
जाटों में एक गोत्र के पुरुष और स्त्री आपस में भाई बहिन माने जाते है एक गोत्र में विवाह करना ना तो सामजिक रूप से और नहीं वैज्ञानिक रूप से ठीक है

कुछ धार्मिक ट्रक जो सगोत्री विवाह का विरोध करते है

मत्स्यपुराण (4/2) में संगोत्रीय शतरूपा के विवाह पर आश्चर्य और खेद प्रकट किया गया है।

गौतम धर्म सूत्र (4/2) में भी असमान गोत्र विवाह का निर्देश दिया गया है।
(असमान प्रवरैर्विगत)
आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- ‘संगोत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्’ (समान गोत्र के पुरूष को कन्या नहीं देना चाहिए)।

सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति”
ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होनेकी सम्भावना होती है”)

“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात”
ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें
पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट
जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं
पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “,

एक पुरखा के पोते,पडपोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी. यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.

“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !!

मनु: 5/60

“सगापन तो सातवीं पीढी मेंसमाप्त हो जाता है. और घनिष्टपनजन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है.”

ओशो का कथन है कि स्त्री-पुरुष जितनी अधिक दूरी पर विवाह करते हैं उनकी संतान उतनी ही अधिक प्रतिभाशाली और गुणी होती है। उनमें आनुवंशिक रोग होने की संभावनाएं कम से कम होती हैं। उनके गुणसूत्र बहुत मजबूत होते हैं और वे जीवन-संघर्ष में परिस्थितियों का दृढ़ता के साथ मुकाबला करते हैं।

वैज्ञानिक तौर पर :

निकट सम्बन्धियों में शादी से इनब्रीडिंग होती है । इनब्रीडिंग से आगामी पीढ़ियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । इसलिए इसे वैज्ञानिक तौर भी पर अनुमति नहीं होती ।

आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है.

गणित के समीकरण के अनुसार,अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,) पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है.मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिकरोगों की सम्भावना समाप्तहोती है.
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो नेसपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था.
सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग ,अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक ,क्षमता की कमी, अपंगता,विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. भारतीय परम्परा मे सगोत्र विवाह न होने का यह भी एक परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व मे भारतीय सब से अधिक बुद्धिमान माने जाते हैं.

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से अनुमोदित व्यवस्था है.

पुरानी सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं.
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं
यदि हम भारत के विषय में बात करे तो इसका सबसे अच्छा उदाहरण  पारसी लोग है यह लोग एक गोत्र में शादी करते जिस के कारण आज इनकी नस्ल लुप्त होने के कगार पर पहुच चुकी है पारसी समाज ने इस समस्या का हल निकाले के लिए सूरत से मुहीम शुरू कि और हर पारसी जोड़े को शादी के बाद आर्थिक मदत की
दूसरा उदाहरण  एक टीवी सर्वे का जिसके अनुसार भारत में किन्नर (हिजड़े ) सिर्फ उन्ही जाति  या धर्मो के लोगो के घर में जन्म लेते है जहां पर सगोत्री विवाह होता है

गोत्रों का महत्व: जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है। 1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है। 2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है। 3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है। 4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है। 5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है।

एक ही गोत्र में विवाह भारतीय हिन्दू संस्कृति में हमेशा एक विवाद एक विवाद का विषय रहा है व नयी ओर पुरानी पीड़ी में टकराव का कारण है | सामाजिक दृष्टि से सगोत्र विवाह अनुचित है क्योकि एक ही गोत्र में जन्मे स्त्री व पुरुष को बहिन व भाई का दर्जा दिया जाता है | वैज्ञानिक दृष्टीकोण भी इसके पक्ष में है कि एक बहिन व भाई के रिश्ते में विवाह सम्बन्ध करना अनुचित है | विज्ञान का मत है आनुवंशिकी दोषों एवं बीमारियों का एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी में जाना यदि स्त्री व पुरुष का खून का सम्बन्ध बहुत नजदीकी है | स्त्री व पुरुष में खून का सम्बन्ध जितना दूर का होगा उतना ही कम सम्भावना होगी आनुवंशिकी दोषों एवं बीमारियों का एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी में जाने कि | दूसरे शब्दों में होने वाले बच्चे उतने ही स्वस्थ व बबुद्धिमान होंगे | शायद भारत के ऋषि मुनि वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने बिना यंत्रो के ही यह सब जन लिया था तथा यह नियम बना दिया था खून का सम्बन्ध जितना दूर का हो उतना उतम |विजातीय विवाह भी एक तरह से गोत्र छोडकर विवाह करने जैसा है व उचित है | सगोत्र विवाह अनुचित ही नहीं परिवार का अंत करने वाला कदम होता है नयी पीड़ी को इसे समझना चाहिए |
1 डीग -कुम्हेर (कांग्रेस ) महाराजा भरतपुर विश्वेन्द्र सिंह (सिनसिनवार जाट )
2 झालरापाटन(बीजेपी) महारानी धोलपुर वसुंधरा राजे (राणा जाट )
3 नदबई (बीजेपी) राजकुमारी कृष्णेन्द्र कौर (देशवाल कि बहु और सिनसिनवार कि बेटी )
4 कामां (बीजेपी) जगत सिंह (भगोर जाट )
5 सादुलशहर (बीजेपी) गुरजंट सिंह बराड़ (बराड़ जाट सिख )
6 सूरतगढ़ (बीजेपी) राजेंद्र सिंह भादू (भादू जाट )
7  संगरिया (बीजेपी) कृष्ण कड़वा (कड़वा जाट )
8  हनुमानगढ़ (बीजेपी) डॉ रामप्रताप सिंह
9  नोहर (बीजेपी) अभिषेक कुमार (मटोरिया जाट)
10 भादरा(बीजेपी) संजीव कुमार (बेनीवाल जाट )
11 खंडेला (बीजेपी) बंशीधर (बाजिया जाट )
12 तारानगर (बीजेपी) जयनारायण (पूनिया जाट )
13 सूरजगढ़ (बीजेपी) संतोष (अहलावत जाट )
14 उदयपुरवाटी (बीजेपी) शुभकरण चौधरी
15मुण्डावर (बीजेपी) धर्मपाल सिंह (महलावत जाट )
16किशनगढ़ (बीजेपी) भागीरथ चौधरी
17नसीराबाद (बीजेपी) सांवरमल जाट (लाम्बा जाट )
18खीवसर (निर्दलीय ) हनुमान (बेनीवाल जाट )
19डेगाना (बीजेपी) अजय सिंह (किलक जाट )
20मकराना (बीजेपी) श्रीराम (भीचर जाट )
21नावां (बीजेपी) विजय सिंह चौधरी
22ओसियां (बीजेपी) भैरूराम चौधरी (सियोल जाट )
23बायतू (बीजेपी) कैलाश चौधरी
24सहाडा (बीजेपी) बालूराम जाट
25 विराटनगर (बीजेपी) फूलचंद भिंडा (भिण्ड तोमर जाट )
26  मालपुरा (बीजेपी ) कन्हैयालाल
27 भीनमाल (बीजेपी ) पूराराम चौधरी
28 श्रीमाधोपुर (बीजेपी) झाबर सिंह (खर्रा जाट )
29 झुंझनु (कांग्रेस ) बृजेन्द्र कुमार (ओला जाट )
30
31 नोखा (कांग्रेस ) रामवेश्वर सिंह (डूडी जाट )
32लछमनगढ़ (कांग्रेस ) गोविन्द सिंह (डोटासरा जाट )
33दातारामगढ़ (कांग्रेस ) नारायण सिंह (बुरडक जाट )
34मंडावा (निर्दलीय ) नरेंद्र सिंह (खीचड़ जाट )
शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के अंतिम संस्कार का दुर्लभ चित्र.... 
!!! 
इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया थाl 
परन्तु यह बात आँधी 


आज़ादी के महानायक " हुतात्मा " भगत सिंह, सुखदेव,राजगुरु की पुण्यतिथि पर शत शत नमन।

पंथ कठिन है माना मैनॆ, मंज़िल ज्यादा दूर नहीं है ॥
करधन-कंगन मॆं खॊया रहना, मुझकॊ मंज़ूर नहीं है ॥
यॆ बिंदिया पायल झुमका, बॊलॊ बदलाव करॆंगॆ क्या ॥
कजरा रॆ, कजरा रॆ कॆ गानॆ, मां कॆ घाव भरॆंगॆ क्या ॥
अमर शहीदॊं का शॊणित, धिक्कार रहा है पौरुष कॊ ॥
वह धॊखॆबाज़ पड़ॊसी दॆखॊ,ललकार रहा है पौरुष कॊ ॥

श्रृँगार-गीत हॊं तुम्हॆं मुबारक, मॆरी कलम कॊ अंगार चाहियॆ ॥
भारत की रक्षा हित फ़िर सॆ, अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥

सब कुछ लुटा दिया, क्या उनकॊ घर-द्वार नहीं था ॥
भूल गयॆ नातॆ-रिश्तॆ, क्या उनकॊ परिवार नहीं था ॥
क्या राखी कॆ धागॆ का, उन पर अधिकार नहीं था ॥
क्या बूढ़ी माँ की आँखॊं मॆं, बॆटॊं कॊ प्यार नहीं था ॥
आज़ादी की खातिर लड़तॆ, वह सूली पर झूल गयॆ ॥
आज़ाद दॆश कॆ वासी, बलिदान उन्ही का भूल गयॆ ॥

उन अमर शहीदॊं कॊ पूरा-पूरा, संवैधानिक अधिकार चाहियॆ ॥
भारत की रक्षा हित फ़िर सॆ, अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥

बीत गईं जॊ काली-काली, अंधियारी रातॊं कॊ छॊड़ॊ ॥
घर कॆ गद्दारॊं सॆ निपटॊ,बाहर वाली बातॊं कॊ छॊड़ॊ ॥
बलिदानी अमर शहीदॊं पर,गर्व करॊ तुम नाज़ करॊ ॥
युवा-शक्ति आगॆ आऒ,जन-क्रान्ति का आगाज़ करॊ ॥
सारी दुनिया मॆं अपनॆ, भारत कॊ तुम सरताज करॊ ॥
गॊरॆ अंग्रॆज नहीं है इन, कालॆ अंग्रॆजॊं पर राज करॊ ॥

बहुत लुटॆ हैं हम सब, अब तॊ शॊषण का प्रतिकार चाहियॆ ॥
भारत की रक्षा हित फ़िर सॆ,अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥

जाति, धर्म, भाषा कॆ झगड़ॆ, छॊड़ॊ इनसॆ दॆश बड़ा है ॥
कर्ज उतारॊ भारत माँ का, वह सब कॆ शीश चढ़ा है ॥
कर्म करॊ कुछ ऎसा यॆ, इतिहास तुम्हॆं भी याद करॆ ॥
भारत भूमि तुमकॊ पानॆ की, ईश्वर सॆ फ़रियाद करॆ ॥
भारत माँ कॆ सपूत तुम, सीमाऒं कॆ पहरॆदार तुम्ही ॥
पृथ्वीराज कॆ शब्द-बॆध, राणाप्रताप की हुंकार तुम्ही ॥

हर नौजवान कॆ हाँथॊं मॆं अब, कलम और तलवार चाहियॆ ॥
भारत की रक्षा हित फ़िर सॆ,अब भगतसिंह सरदार चाहियॆ ॥

( वीर रस के कवि-राज बुन्दॆली जी की कविता )


पंजाब में तोमर जाट (जट ) कि उपगोत्रा शाखाए
पंजाब में खोसा ,शिरा (सीडे ),खेला,भेंड़ा (भिंडर) उपगोत्र है जो गोत्र के रूप में तोमर (तंवर ) के स्थानीय भाषिये रूप तूर का प्रयोग करते है जो तुवर (तंवर) कोही पंजाबी भाषा में तुर बोलते है तुंग ,तोमर ,तुंवर ,तूर ,तंवर एक ही गोत्र है जो विभिन्न स्थानीय भेद के कारण अलग सम्बोधन से पुकारे जाते है
खोसा तुवर (तूर )- H.A. Rose और पंजाबी जट्ट इतिहास के अनुसार खोसा मूल रूप से दिल्ली से आये तोमर जाट थे जब दिल्ली से राज्य चला गया तो अनंगपाल के वंशज दिल्ली से इस क्षेत्र में आगये थे उनमे से कुछ तोमरो ने अफगानी लुटेरो को लूटना शुरू कर दिया , लूटने तथा किसी वस्तु धन को खोसने के कारण ही इन्हो को स्थानीय लोगो ने खोसा कहना शुरू कर दिया जो आगे चल कर इनका उपगोत्र बन गया
जब तोमर जाट दिल्ली से इस क्षेत्र में आये । तब उनके एक नवजात बच्चे कि युद्ध में रक्षा तोमरवंश कि कुल देवी योगमाया ने चील के रूप में आकर के कि थी उसी बच्चे ने अपने नाम पर रणधीर पुर नाम से एक गाव मोगा जिले में बसाया था । जिसको आज खोसा रणधीर बोलते है । इस गाव में पहले के समय में एक तालाब पर माघ माह में एक मेले का आयोजन होता था आज भी खोसा तोमर चील दुवारा रक्षा किये जेन के कारन ही शादी के दौरान एक रोटी चील को अवश्य रूप से देते है पंजाब में खोसा तूर जमैतगढ़ , खोसा रणधीर ,खोसा देवा ,खोसा कोटला ,खोसा पाण्डो गाव में निवास करते है
और उत्तरप्रदेश के बिजनौर में मुबारक पुर गाव में वो तोमर ही गोत्र के रूप में लिखते है

खेला तोमर - यह पंजाब के तोमरो कि एक उप गोत्र शाखा है जी आज गोत्र के रूप में सिर्फ तूर ही काम में लेती है
भेंड़ा ( भिंडर ) -सन 1375 में जब दिल्ली पर फ़िरोज़ शाह का शासन था उसी समय एक जाट यौद्धा वीरपाल जाट ने भिण्ड(मध्यप्रदेश ) में तोमर जाट गावो कि स्थापना कि कुछ वर्ष बाद तोमर जाटों ने सामूहिक रूप से यह क्षेत्र छोड़ दिया अपने गाव भिंड के नाम पर यह भेंड़ा तोमर कहलाये यह पंजाब में रायपल तोमर नाम के योद्धा के साथ जाकर सिलायकोट में बसे यहा से यह सिख पंथ में आकर जालंदर में नोगजा में बसे नोगजा के राजा अमरसिंह भी एक भेंड़ा तोमर है
तुंग तोमर -तोमरो को तुंग भी बोला जाता था प्रबंध चिन्तामणि नाम के ग्रन्थ में तोमर प्रदेश के इए तुंगपाटन और दिल्ली के तोमर नरेश के लिए तुंगराज का प्रयोग किया गया है पंजाब में तुंग उपगोत्र के तोमर सिर्फ अमृतसर के पास तुंग गाव में निवास करते है इस तुंग गाव में यह लोग दिल्ली के तुंग गढ़ नाम के गाव से 1800 के आसपास आकर बसे थे । गुरमुख सिंह ने दिल्ली से आकर सिखो कि रामगढ़िया मिसल में भर्ती हो गये और इस गाव तुंग कि नीव रखी । और इसके आसपास के गावों कि जागीरी प्राप्त कर ली गुरमुख सिंह के पुत्र का नाम नारायण सिंह था मृत्यु 1839 में हुई उनके वंशज साहिब सिंह ने इस पर राज्य किया साहबसिंह कि 1804 मृत्यु हो जाने के बाद उनके पुत्र फतेहसिंह ने उनकी जागीरी को सम्भाला फ़तेह सिंह के 3 लड़के थे उनके पुत्र जोध सिंह कि 1821 में मृत्यु हो गयी यह सिर्फ एक ही गाव तुंग में निवास करते है

शिरा(सिरा ) तोमर (ਸੀੜ੍ਹਾ ਟੂਰ ਜੱਟ )

कैथल के तोमर (तंवर ) जाटों का इतिहास
कैथल हरयाणा कि गुहला तहसील के आसपास तंवर (तोमर ) गोत्र के जाटों के मुख्य 12 गाव और लुधियाना ,पटियाला जिले में बहुत से गाव इस गोत्र है जो कि कैथल के चीका गाव से जाकर बसे है । कैथल और पंजाब में आज भी यह अपना गोत्र तंवर (तोमर ) ही बताते है । तोमर को पंजाबी भाषा में तूर बोला जाता है इन तंवर जाटों को शिरा तंवर ,सीढे तंवर बोला जाताहै इनका गोत्र तोमर (तंवर ) और उपाधि (लोकल नाम ) शिरा है सिरा तंवर दिल्ली नरेश अनंगपाल सिंह तोमर के वन्सज है

शिरा नाम पड़ने के पीछे दो इतिहासकी कारन बताये जाते है

शिरा तोमरो का इतिहास
शीरा (शिरे)तंवर - यह तंवर जाटो की ही एक शाखा है पेहोवा के इतिहास के अनुसार यहाँ पर जाटों का शासन रहा है ।पेहोवा शिलालेख में एक तोमर राजा जौला और उसके बाद के परिवार का उल्लेख है। महिपाल तोमर का भी पेहोवा पर शासन रहा है थानेसर जो की हिन्दू के लिए उतना ही पवित्र था जितना मुस्लिमो के लिए मक्का , थानेसर अपनी दोलत के लिए और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध था । दिल्ली के राजा अनगपाल और ग़ज़नी के राजा महमूद के बीच यह संधि थी की दोनों ही एक दुसरे के क्षेत्र में हमला नही करेगे लेकिन जैसा की गजनवी धोखे बाज़ था । उस ने धन ले लालच में हमले की योजना बनाई । और पंजाब तक आ गया । दिल्ली के तोमर (तंवर ) राजा अनगपाल तोमर तक उस के नापाक योजना की सुचना पहुच गयी थी अनगपाल तोमर ने अपने भाई को 2000 घोड़े सवारो के साथ महमूद से बात करने पंजाब भेजा दोनों बीच में बातचीत हुई और वो वापस दिल्ली अपने भाई के पास चल दिया उसको रास्ते में सुचना मिली की महमूद हमला करने वाला है इस बात की सूचना उस ने अपने बड़े भाई अनगपाल तोमर को दे दी । जो उस समय दिल्ली में थे । उन्होंने कई हिन्दुओ राजो को साथ लिया और थानेसर की तरफ चल दिए उनके पहुचने से पहले ही महमूद ने थानेसर के मंदिरों को लुटा । थानेसर से उस को बहुत धन दोलत प्राप्त हुई । फिर उसने दिल्ली पर हमले के सोची पर उसके सेनापति ने महमूद गजनवी से कहा की दिल्ली के तोमरो को जितना असम्भव है । क्योंकी तोमर इस समय बहुत शक्तिशाली है ध्यान देने वाली बात है गजनवी ने भारत पर 17 बार हमले किये पर दिल्ली पर कभी हमला करने की उसकी हिम्मत नही हुई | 1025 के सोमनाथ के हमले के बाद उस को खोखर जाटों ने रास्ते में ही लुट लिया । उसको सबक सिखा दिया । और वो वापस मुल्तान लोट गया । जब अनंगपाल तोमर इस क्षेत्र में पहुचे तो वो बहुत दुःखी हुए और वो पालकी की जगहे सीढ़ी पर बैठ पर गये । लोकभाषा में सीढी को सीरी बोला जाता था इस कारण से ही तो तोमर जाटों को इस क्षेत्र में सिरा तोमर ,या शिरा तंवर कहते है (शिरा (सिरे)=सीढ़ी (सीरी ) वाले ) कहा जाता है ।

दूसरा कारन यह बताया जाता है कि एक बार पंजाब में एक किले को दुश्मनो ने धोखे से घेर लिया ने तब अधिकाश तोमर(तुर ) जट्ट युद्ध करते हुए मारे गये कुछ तोमर सैनिको को राजा को सुचना देने लिए लिए सीढ़ी(सीरी ) लगा कर किले से बाहर भेज दिया गया था बाद में किले पर दुश्मनो का कब्ज़ा हो गया यह एक lake फोर्ट था जो पंजाब में रालामिला नामक किसी जगह पर था , उन तोमरो के वंशजो को बाद में सीढ़ी वाले यानि सिरे तोमर बोला गया

इनके गाव हरियाणा में कैथल के पास
हरिगढ़ किंगन,चीका,नंदगढ़,कुशाल माजरा ,कल्लर माजरा,सदरहेडी,मेगड़ा,नेवल,भागल,बादसुई(बद्सुई),रिवाड(रवाहर) जागीर,भून्सलान,मुख्य गाव है चीका से ही कुछ लोगो ने अम्बाला जिले में गाँव -धनोरा(धनोड़ा ),मिर्जापुर, बसाये

पंजाब में भी शिरा तोमर कैथल के चीका गाव से जाकर बसे थे । तोमरो ने जट सिख मिसल में भर्ती होकर युद्ध लड़े और पंजाब में ही बस गये
फतेगढ़ साहिब जिले में बधोछी कलां,डबवाली लुधियाना जिले में मुल्लनपुर,शिरा,सिधवान कलां,पटियाला जिले में अरणों,नन्हेडा,भटिंडा जिले में जंगीराणा, यह कुछ गाव तोमर जाटों के है



kanha veer





कान्हा रावत
एक वीर जाट जिसने धर्म के लिए कुर्बानी दी । इस वीर कि याद में हरियाणा के जिले पलवल के गांव बहीन में शहीद कान्हा रावत की मूर्ति का अनावरण कार्यक्रम फरवरी में आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्ष भरतपुर नरेश विश्वेंद्रसिंह ने की ।लेकिन आज के हिंदूवादी को देखो कान्हा रावत कि शाहदत को भूल गये है । इस वीर को सम्मान नहीं दिया क्यों कि वो जाट था इसलिए समाज को आगे आकर इन वीरो के इतिहास का प्रचार करना होगा
कान्हा रावत का जन्म और बचपन
हिंदुस्तान का इतिहास बलिदानी, साहसी देशभक्त वीरों की वीरगाथा से भरा पडा है. ऐसे वीर जिन्होंने भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाजों और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट वीरभूमि हरियाणा वैदिक सभ्यता नैतिकता, विशाल त्याग, यज्ञों की स्थली तथा विद्वानों की कर्म स्थली रही है. यहां के रणबांकुरों ने समय-समय पर देश की रक्षा व स्वाभिमान के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी. हरियाणा के जिला फरीदाबाद के मेवाती उपमंडल हथीन के निकटवर्ती गांव बहीन भी प्राचीन संस्कृति का एक दृश्य है.
धर्म बलिदानी कान्हा रावत का जन्म दिल्ली से ६० मील दक्षिण में स्थित रावत जाटों के उद्गम स्थान बहीन गाँव में चौधरी बीरबल के घर माता लाल देवी की कोख से संवत १६९७ (सन १६४०) में हुआ. वह समय भारत में मुग़ल साम्राज्य के वैभव का था. हर तरफ मुल्ले मौलवियों की तूती बोलती थी. कान्हा ने जन्म से ही मुग़लों के अत्याचारों के बारे में सुना था. यही कारण था कि कान्हा को छोटी अवस्था से ही लाठी, भाला, तलवार, ढाल चलाने की शिक्षा दी गई.
पारिवारिक जीवन
युवा होने पर उनका विवाह अलवर रियासत के गाँव धीका की कर्पूरी देवी के साथ कर दिया गया. उनके दो पुत्र हुए लेकिन शीघ्र ही कर्पूरी देवी स्वर्ग सिधार गई. कर्पूरी देवी के चल बसने के बाद रिश्तेदारों के आग्रह पर कान्हा ने गुडगाँव जिले के ग्राम घरोंट निवासी उदयसिंह बड़गुजर की पुत्री तारावती को दूसरी जीवन संगिनी बना लिया लेकिन कान्हा के भाग्य में कुछ और ही लिखा था. जिस दिन कान्हा घरोंट से तारावती का गौना लेकर लाये उसी दिन बहीन के रावतों को मुग़लों ने घेर लिया. वीर कान्हा और तारावती अपने होने से पहले ही बेगाने हो गए. कान्हा ४४ वर्ष की उम्र में अमर पथ का पथिक बन गया.
फाल्गुन मास की अमावस्या सन् १६८४ को कान्हा रावत अपनी दूसरी शादी घर्रोट गांव से करके लाए औरंगजेब ने इसी अवसर का लाभ उठाना चाहा था. उन्होंने उसने बहीन गांव को चारों ओर से घेर लिया जब कान्हा रावत अपनी नई नवेली दुल्हन तारावती को लेकर बहीन पहुंचा तो मुगल सेना को देखकर दंग रह गया. कान्हा रावत को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए बहुत प्रलोभन दिए गए, परन्तु मात्रभूमि के मतवाले को गुलामी की जंजीरे मंजूर नहीं थी. इसलिए कंगन बंधे हाथों से मुगल सेना से भिड गया. बताया जाता है कि शाही हथियारों का मुकाबला, लाठी, फरसा, बल्लम और भालों से किया, कई दिनों तक चले इस युद्ध में जब कान्हा निहत्था रह गया तो अब्दुन नबी ने उसे बंदी बना लिया।
औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति
औरंगजेब ने ९ अप्रेल १६६९ को फरमान जारी किया- "काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं". फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया. कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे . और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार.
सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया.
सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए. बस संघर्ष शुरू हो गया.
मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह
मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह [सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा] ने स्पष्ट कहा है, राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके. असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ । आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे. शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया. [8] तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया
इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था. गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी. जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा. [10]
गोकला जाट ने, अथक साहस का परिचय देकर मथुरा, सौख, भरतपुर, कामा, डीग, गोर्वधन, छटीकरा, चांट, सुरीर, छाता, भिडूकी, होडल, हसनपुर, सोंध, बंचारी, मीतरोल, कोट, उटावड, रूपाडाका, कोंडल, गहलब, नई, बिछौर के पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन के बंगले पर एकत्र कर एक विशाल पंचायत बुलाई. इस पंचासत में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई. इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला जाट को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे. युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई. जंगल की आग की तरह खबर विदेशी आंक्राता औरंगजेब तक पंहुच गई. उसने अपना सेनापति शेरखान को तुंरत बहीन भेजा.
माघ माह की काली घनी अंधेरी रात में देव राज इंद्र द्वारा किसानों की फसलों के लिए बरस रहे मेघ की बूंदों, काले बादलों के बीच नागिन की तरह चमकती बिजली, जानलेवा कडकडाती शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी. बंगले पर विराजमान वृद्धों ने भारतीय संस्कृति की रीतिरिवाज के अनुसार शेरखान को आदर सहित बंगले पर बुलवाया तथा उससे आने का कारण पूछा. शेरखान शाह मिजाज से वृद्धों का अपमान करता हुआ बोला - हम बादशाह औरंगजेब का फरमान लेकर आए है. यहां के लोग सीधे-सीधे ढंग से इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं, तो तुम्हारे मुखिया को नवाब की उपाधि से सम्मानित करेंगे. खास चेतावनी यह है कि यदि तुम लोगों ने गोकला जाट का साथ दिया तो अंजाम बुरा होगा।
इतनी बात सुनकर कान्हा रावत वहां से उठे और अपनी निजी बैठक में गया और भाला लेकर वापिस शेरखान पर टूट पडा. गांव के वृद्धों ने उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे. इधर शेरखान ने भी अपने साथियों को आदेश दिया कि वे इस छोकरे को शीघ्र काबू करके बंदी बनाएं. कान्हा रावत का उत्साह देखकर उसके युवा साथी भी लाठी, बल्लम आदि शस्त्र लेकर टूट पडे. युवाओं ने उन सैनिको को वहां से भगा कर ही दम लिया. [13]
मुग़ल सेना से युद्ध
तारावती को लाने से पूर्व रावतों के पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे
हम अपना वैदिक हिन्दू धर्म नहीं बदलेंगे.
मुसलमानों के साथ खाना नहीं खायेंगे.
कृषि कर अदा नहीं करेंगे.
रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा. उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी. सन १६८४ में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया. रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया. रावत जाटों ने मुग़ल सेना के छक्के छुडा दिए. यदि फिरोजपुर झिरका से मुग़लों को नई सैन्य टुकड़ी का सहारा नहीं मिलता तो मैदान रावत जाटों के हाथ रहता. लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन रावत जाट आखिर कब तक मुकाबला करते. इस युद्ध में पांचों रावत गांवों के अलावा अन्य रावत जाट भी लड़े थे और अनुमानतः २००० से अधिक रावत वीरगति को प्राप्त हुए थे. रावत जाटों के नेता कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया.
कान्हा रावत को जिन्दा जमीन में गाड़ा
सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया. उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया. वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया. उसी जेल के आगे गढा खोदा गया. कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ. [18]
शेर पिंजरे में बंद होकर भी दहाड़ रहा था -
'जिन्दा रहा तो फिर क्रांति की आग सुलगाऊंगा' [19]
रावतों के इतिहास के लेखक सुखीराम लिखते हैं कि - कान्हा रावत के कष्टों की दास्ताँ से निर्दयी औरंगजेब का दिल भी पसीज गया. एक दिन वह प्रात काल की वेला में अजमेरी गेट की जेल गया. कान्हा रावत की हालत देख वह बोला -
"वीर रावत मैं तुम्हारी वीरता का कायल हूँ और तुम्हें माफ़ करना चाहता हूँ. तेरी युवा अवस्था है, घर में बैठी तेरी प्राण प्यारी विरह में रो-रोकर सूख कर कांटा हो गई है. तेरी माँ, बहन-भाई और रिश्तेदार बेहाल हैं. बहुत दिनों से रावतों के घर में दीपक नहीं जले हैं. किसी ने भी भर पेट खाना नहीं खाया है. तुम्हारे जैसा सात फ़ुट का होनहार जवान अपने दिल की उमंगों को साथ लिए जा रहा है. मुझे इसका अफ़सोस है. अरे पगले ! अपने ऊपर और अपनों पर रहम कर. यदि तू मेरी बात मानले तो तुझे मैं जागीर दे सकता हूँ. सेनापति बना सकता हूँ. तेरी मांगी मुराद पूरी हो सकती है. मेरे साथ चल. बाल कटवा, नहा धो और अच्छे कपडे पहन. दोनों साथ मिलकर खाना खयेंगे. अब बहुत हो चूका. तेरी हिम्मत ने मुझे हरा दिया है. अब तो दोस्ती का हाथ बढा दे." [20]
औरंगजेब की बात सुनकर वीर कान्हा रावत ने जवाब दिया था -
"बादशाह तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है. खाना ही खाना होता, जागीर ही लेनी होती तो यहाँ इस तरह नहीं आता, इतना जान माल का नुकसान नहीं होता. मैंने सुब कुछ सोच विचार कर यह करने का निश्चय किया है. तुम ज्यादा से ज्यादा मुझे फांसी लगवा सकते हो, गोली से मरवा सकते हो या जमीन में दफ़न करवा सकते हो लेकिन मेरे अन्दर विद्यमान स्वाभिमान तथा देश एवं धर्म के प्रति प्रेम को तुम मार नहीं सकते. हाँ यदि तुझे मुझ पर रहम आता है तो बिना शर्त रिहा करदे."
औरंगजेब अपमान का घूँट पीकर चला गया.
कान्हा रावत ने औरंगजेब के साथ खाना खाने से इंकार कर दिया. उसको अपना धर्म त्यागना भी स्वीकार नहीं था. उसने अब्दुन नबी (मुग़ल सेनापति) के विरोध में उठने वाले किसान-आन्दोलन को नंदराम और गोकुला के साथ मिलकर हवा दी थी. इस जाट वीर ने प्राण भय से स्वधर्म और संघर्ष नहीं छोडा था. उसने जजिया कर के खिलाफ डटकर लडाई लड़ी थी.
एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया. उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे. कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था. दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दे. तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:
"अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है. क्या तू रावतों की शान में कायरता का कलंक लगाना चाहता है. मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है. ताकि मैं शांति से मर सकूं. मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है. मैंने सोचा था कि तू रौताई (रावत पाल) का कोई हाल सुनाने आया है और मेरा सन्देश लेने आया है. लेकिन तुझे धिकार है. तू यहाँ आने से पहले मर क्यों नहीं गया. तूने मेरी आत्मा को छलनी कर दिया है."
कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर माफ़ी मांग कर वापिस गया. कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों के जाटों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया. यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली. इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली. इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत पर जुल्म बढा दिए. अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत १७३८ (सन १६८२ /सन १६८४) को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया. वह देशभक्त हिन्दू धर्म की खातिर शहीद होकर अमरत्व को प्राप्त किया. [28][29]
कान्हा रावत के बलिदान ने दिल्ली के चारों तरफ बसे जाटों को जगा दिया. चारों और बगावत की ध्वनि गूंजने लगी. यह घटना मुग़ल सल्तनत के हरास का कारण बनी.
जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है.
दिल्ली स्थित पहाडी धीरज पर आज भी वह जगह रावतपाडा के नाम से प्रसिद्ध है। कान्हा रावत को विदेशी छतरी को निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है। रावत पाल के लोगों ने उनकी स्मृति गौशाला का निर्माण कराया, जहां पर हर वर्ष दो दिन का उत्सव मनाया जाता है।
यह वक्त की ही विडम्बना है कि किसी भी राष्ट्रिय स्तर के लेखक ने इस शहीद पर कलम चलाने का प्रयास नहीं किया.