कुतुब मीनार के पास कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के आंगन में स्थित लौह स्तंभ न सिर्फ गुप्त वंश के गौरव का प्रतीक है बल्कि इसी की बदौलत दिल्ली का नामकरण भी हुआ है। प्राचीन भारतीयों के धातुकर्मीय कौशल का प्रतीक यह लौह स्तंभ अथवा लाट या कौली अपने आप में कई रोचक कथाओं को समेटे हुए है।
यह स्तंभ किसी और स्थान से यहां लाया गया है। भाटों का कहना है कि तोमर राजा अनंगपाल इस स्तंभ को लाया था लेकिन कहां से लाया था इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। उनके अनुसार दिल्ली को उसका नाम इसी स्तंभ की बदौलत मिला है। दिल्ली को इससे पहले टेल्लिका के नाम से जाना जाता था। जब राजा अनंगपाल ने इसे अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया तो उसने यह स्तंभ लगवाया। महेश्वर दयाल की पुस्तक दिल्ली मेरी दिल्ली के अनुसार प्रसिद्ध कवि चंद बरदायी ने इस बारे में एक बड़ी रोचक कथा लिखी है− राजा अनंगपाल को किसी ब्राह्मण ने वचन दिया था कि यदि इस स्तंभ को ठीक तरह से शेषनाग या वासुकी के सिर पर मजबूती से गाड़ दिया जाये तो जिस तरह से स्तंभ अटल रहेगा उसी तरह उसका राज भी अटल रहेगा। स्तंभ गाड़ दिया गया लेकिन राजा को यकीन नहीं हुआ कि उसका सिरा शेषनाग के सिर तक पहुंच गया है। राजा ने स्तंभ को उखड़वा कर देखा तो उसका निचला सिरा खून से लथपथ था। यह देखकर उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। राजा घबरा गया और उसने स्तंभ को फिर से गाड़ना चाहा लेकिन वह पहले की भांति मजबूती से नहीं गड़ सका। इस पर ब्राम्हण ने यह दोहा कहा कि किल्ली तो ढिल्ली भाई तोमर भया मतिहीन, लोगों का कहना है कि तभी से इस नगरी का नाम दिल्ली पड़ गया। इस लाट पर समय विक्रमी संवत 1109 दिया हुआ है जो 1052 ईसवीं होता है। ब्रजकिशन चांदीवाला की पुस्तक दिल्ली की खोज के अनुसार कवि चंद बरदाई का तो यह भी कहना है कि इस लाट को बनवाया भी राजा अनंगपाल ने ही था। कवि कहता है कि राजा ने 100 मन लोहा मंगवाकर उसे गलवाया और लौहारों ने उसका पांच हाथ लंबा खंबा बनाया। अन्य अनुमानों के अनुसार दिल्ली को बसाने वाले राजा अनंगपाल इस स्तंभ को बिहार से यहां लाये। वैसे सैंकड़ों मील की दूरी से इतने वजनी स्तंभ को लाना कोई आसान बात नहीं थी, खासकर उस जमाने में साधन बहुत सीमित थे। कुछ का कहना है कि इस लाट को मथुरा से लाया गया था। वाईडी शर्मा की पुस्तक दिल्ली और उसका आंचल के अनुसार भी पुरालेखीय दृष्टि से इस स्तंभ का समय चौथी शताब्दी निर्धािरत किया गया है। यह स्तंभ किसी और स्थान से यहां लाया गया था क्योंकि इस स्थल पर चौथी शताब्दी की अन्य धरोहर नहीं है। यह लाट किस−किस धातु की बनी हुई है इसके लिए अलग−अलग राय है। दिल्ली की खोज के अनुसार कुछ विद्वानों का मत है कि यह ढले हुए लोहे का बना है। कुछ इसे पचरस धातु, पीतल, तांबा आदि से बना बताते हैं। कुछ इसे स्पत धातु से बना कहते हैं। कुछ इसे नरम लोहे का बना कहते हैं। डॉ. टाम्सन ने इसका एक टुकड़ा काटकर उसका विश्लेषण किया था। उनका कहना है कि यह केवल गर्म लोहे का बना हुआ नहीं है बल्कि चंद मिश्रित धातुओं से बना है जिनके नाम भी उन्होंने दिये हैं। इस पर संस्कृत के छह श्लोक लिखे हुए हैं। इन श्लोकों का अध्ययन सबसे पहले जेम्स प्रिंसेज ने किया और बाद में अन्य लोगों ने भी इसकी व्याख्या की। इस पर खुदे श्लोकों के अनुसार चंद्र नाम का एक राजा हुआ जिसने बंग, यानी बंगाल देश पर विजय प्राप्त की थी और सिंधु नदी की सप्त सहायक नदियों को पार करके उसके वाल्हिका यानी वल्लख को जीता था। उस विजय की स्मृति में यह लोहे का स्तंभ बना है। पुस्तक के अनुसार अनुमान है कि विष्णु पद नाम की पहाड़ी पर बने विष्णु भगवान के मंदिर पर यह ध्वज रूप में लगाया गया होगा और इसके ऊपर विष्णु वाहन गरूड़ की मूर्ति रही होगी। राजा चंद्र से अनुमान है कि यह चंद्रगुप्त द्वितीय होंगे जिनको विक्रमादित्य द्वितीय भी कहते थे और जो चौथी शताब्दी में हुए हैं। यह राजा भगवान विष्णु के बड़े भक्त थे और पाटलिपुत्र उनकी राजधानी थी जो बिहार में है। दिल्ली की खोज के अनुसार यह स्तंभ 23 फुट 8 इंच लंबा है और 14 इंच जमीन के अंदर गड़ा हुआ है। इसकी जड़ लट्ठ की तरह है जो लोहे की छोटी−छोटी सलाखों पर टिकी हुई है और स्तंभ को शीशे की सहायता से पत्थर में जमाया हुआ है। इसकी बुर्जीनुमा चोटी साढ़े तीन फुट ऊंची है जिस पर गरूड़ बैठे थे। लाट का सपाट हिस्सा 15 फुट है। इसका खुरदरा भाग चार फुट है और इसके नीचे का व्यास 16 दशमलव 4 इंच है और ऊपर का 12 दशमलव 5 इंच है। इसका वजन 100 मन के करीब आंका जाता है। इस स्तंभ को दो बार बरबाद करने का प्रयत्न किया गया। कहा जाता है कि नादिरशाह ने इसे खोदकर फेंक देने का हुक्म दिया लेकिन मजदूर काम नहीं कर सके। उन्हें सांपों ने आकर घेर लिया और उस दौरान एक भूचाल भी आया। दूसरी बार मराठों ने दिल्ली पर अपने कब्जे के दौरान इस पर एक भारी तोप लगा दी लेकिन उससे कुछ भी नुकसान नहीं हुआ। लेकिन गोले का निशान अभी भी देखा जा सकता है। यह लाट अनेक वर्षों से यहां खड़ी है लेकिन इसकी धातु इतनी उत्कृष्ट है कि इस पर मौसम की तब्दीली का कोई प्रभाव नहीं पड़ सका। दिल्ली और उसका आंचल के अनुसार इस स्तंभ की धातु लगभग विशुद्ध पिटवा लोहे जैसे पायी गयी है। जमीन के नीचे के भाग में जंग लगने के कुछ आसार नजर आते हैं लेकिन यह बहुत धीमी गति से लग रहा है।

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