तोमर कुंतल जाट

 तोमर कुंतल अर्जुनायन (तँवर) जाट गोत्र  परिचय 

अर्जुन के वंश पांडव वंशी तोमर (कुंतल ) जाटों को समय-समय पर अलग-अलग नाम से जाना जाता  रहा है| जैसे  तोमर,तंवर,कुंतल,अर्जुनायन ,खुटेला,कौन्तेय,पांडव,सलकलान  आदि है| तोमर जाट भारत के उत्तरप्रदेश , हरियाणा ,दिल्ली ,राजस्थान ,पंजाब ,उत्तराखंड ,मध्यप्रदेश और तेलंगाना राज्यों में शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में निवास करते है। कुछ संख्या में तोमर जम्मू और कश्मीर ,हिमाचल और बिहार ,गुजरात राज्यो में भी निवास करते है। भारत के लगभग हर बड़े शहर में आपको कौन्तेय वंशी तोमर जाट मिल जाएंगे

चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम से यह वंश भरतवंशी कहलाता था| तोमर गोत्र का ही अपभ्रश तंवर है इतिहासकारों ने दिल्ली के तोमर राजाओ के लिए कही पर तोमर तो कही पर तंवर पर तो कही पर कोन्तय / कुंतल शब्द का उपयोग किया है| जो भाषा भेद के कारण तँवर और पंजाब में तूर (तुअर) नाम से तो पांडवो के वंशज होने के कारन पांडव, कुंतल,कौन्तेय नाम से जाना जाता है।
तोमर राजवंश का मूल उद्गम महाभारत के योद्धा पाण्‍डव अर्जुन से है, परीक्षत एवं उनके पुत्र जन्‍मेजय द्वारा विश्‍व विख्‍यात सर्प यज्ञ कर सर्प प्रजाति को ही वंश नाश कर समाप्‍त करने हेतु आयोजित यज्ञ और उसमें भगवान श्री हरि विष्‍णु द्वारा स्‍वयं आकर सर्प जाति की रक्षा तथा तोमर वंश के लोगों को सर्प द्वारा न डसने तथा डसने पर असर न होने के वरदान की त्रिवाचा की कथा जगत प्रसिद्ध है ।तोमर जाटों के 50 गाँव ऐसे है जिनकी जनसंख्या 10,000 से अधिक है । जैसे बावली , पृथला आदि ।

तोमर कुंतल  जाट गोत्र की उप गोत्र शाखाएं है

1.कुंतल/(खुटेल), 2.पांडव , 3.सलकलायन , 4.चाबुक तोमर ,5.तंवर, 6.भिण्ड तोमर (भिंडा) ,7.जाखौदिया तोमर , 8.खोसा तोमर 9.देशवाले, 10.शिरा/सीडा तंवर 11. मोटा ,12.कपेड या कपेड़ा 13.कोठ्यार तोमर 14.जाटू तोमर 15.अडिंग तोमर  उप गोत्र शाखाएं है, लेकिन गोत्र तोमर है ।

उत्पत्ति

इस वंश को तोमर बोलने के पीछे भाटो ने लिखा है की जब महाभारत के रण की रणभेरी बज चुकी थी। अर्जुन ने अपने कुल देवी मंशा की पूजा अर्चना की पूजा से देवी ने प्रसन्न होकर दिव्य अश्त्र तोमर अर्जुन को प्रदान किया जिसका प्रयोग अर्जुन ने महाभारत के युद्ध में किया था| जिसके कारन यह वंश तोमर कहलाया तोमर शब्द का मतलब अस्त्र हथियार से है जिसका उपयोग अर्जुन ने महाभारत के युद्ध में किया था यह दिव्य हथियार उसे माँ दुर्गा से प्राप्त हुआ था इस हथियार को चलाने के कारण ही अर्जुन के वंशज तोमर कहलाये अस्त्र उस हथियार को कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं। दुर्गा कवच पाठ का श्लोक नीचे दिया है जिस में तोमर हथियार का वर्णन है यह सभी देवी दुर्गा के हथियार है
      एक शंखं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्।।
      खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।  
      त्रिशूलं व शार्गंमायुधमुत्तमम्।।
पार्थ
कुंती के बचपन का नाम पृथा था | कुंती पुत्र होने के कारन अर्जुन को पार्थ भी कहा जाता था|

उत्तर भारत के निवास
इस पांडव वंश का मूल निवास सदा से इन्द्रप्रस्थ के आसपास का क्षेत्र ही रहा है| इस वंश की एक शाखा ने कुछ समय के लिए मध्य भारत में कर्णाटक के समीप अधिकार जमा लिया था| वो क्षेत्र आज भी इनके नाम से कुंतल देश कहलाता है| इस क्षेत्र में कुछ समय शासन करने के बाद यह पुनः इन्द्रप्रस्थ लौटा आये थे| अर्जुनायनो/कौन्तेयो के गणराज भी दिल्ली के निकट क्षेत्र में था| हर्षवर्धन के समय भी यह लोग कुरुक्षेत्र और इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के आसपास निवास करते थे| अबुल फज़ल ने भी मालवा (पंजाब) तक तोमरो का निवास माना है|
ब्रह्म पुराण मे भी तोमरो के लिये कहा गया कि वो उत्तरी भारत के निवासी थे

       तोमरा हन्समार्गाश्श्रच काशमीराः करुणास्तथा
      शुलिका कुहकाश्र्चेव मागधाश्रच तथैव च

मत्स्य पुराण के प्रथम खंड में उल्लेखित है –
तोमरो के देश में से गंगा नदी प्रवाहित होती थी तोमरो का मूल निवास उत्तर भारत ही था |

तोमरां प्लावयन्ति चहं सभागनी सप्तुहकान |
पुर्वान्देशाश्च सेवंती नित्वासा बहुधा गिरिस ||
कण प्रावरणान प्राप्य गता साश्वमुखा  नपि|
सिक्तया पर्वतमेरू सागत्वा विधाधरानशी||
अर्थ – गंगा के द्वारा जो सात स्त्रोतों का विसर्जन कर दिया गया था | उनमे से वह सरिता का स्त्रोत जो उन सात स्त्रोतों में से एक थी ,जो तोमर देशो का प्लावन जरती हुई हंस मार्ग ,सम्हुहाको एवं पूर्व देशो का देवन करती हुई वह प्राय : गिरियों का भेदन करके कर्ण पावरनों में चली गयी
तोमर वंश की उत्पत्ति के मत
तोमर वंश की उत्पत्ति के ऐतिहासिक मत तोमरो को पांडव वंशी सिद्ध करते है। तोमर /कुंतल गोत के भाटों ने भी इस वंश को पांडव वंशी लिखा है| वर्तमान जाटों में आज भी इस गोत्र के लोग पांडव लिखते है |
तोमरो को चंद्रवंशी माना गया है| चंद्रवंशी राजा तुर्वशु के वंशज ओर राजा पुरु के वंशज बाद मे विलय हो कर पोरव कहलाए इस वंश में राजा भरत हुए जिनके नाम पर यह भूमि भारत कहलाती है| आगे भरत वंश में राजा पाण्डु का जन्म हुआ जिनकी दो पत्नियाँ थी एक कुंती दूसरी माद्री थी राजा पांडू के 5 पुत्र (युधिष्ठर,भीम,अर्जुन,नकुल ,सहदेव ) थे| जो पांडव कहलाते है| राजा पाण्डु पुत्र अर्जुन के वंशज होने के कारन ही यह वंश पांडव अर्जुनयान और कौन्तेय कहलाता है| अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू हुए और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित हुए

•             अर्जुन से तोमर वंश की उत्पत्ति के लिए कहा गया है -
         अर्जुन के सूत सो भये अभिमन्यु नाम उदार 
         तिन्हते उत्तम कुल भये तोमर जाट उदार 

   
खडगराय कृत गोपाचल आख्यान मे तोमरो को पांडव वंशी कहा गया -
   अब सुनियों तोमर उत्पत्ति ,क्षत्रियो में सो उत्तम जाति
   कछु कछु कथा हेतु श्रुत भयो ,सोमवंश अब वरन न लायो
   पांडव वंश जग तेज निदान ,महाराज बंसी बरबान
रोहितासगढ़ के शिलालेख मे तोमरो को पाण्डववंशी लिखा गया है|
कवि चन्द्र ने भी तोमरो को कौन्तेय / पाण्डववंशी लिखा है।
कवि खङ्गराय ने गोपाचल आख्यान मे तोमरो को पाण्डववंशी लिखा है।
गुप्त कालीन इतिहास मे तोमरो को कौन्तेय (अर्जुनायन) लिखा गया है|
हर्षवर्धन (606ई.-647ई.) के समय में कौन्तेय अर्जुनायन को वीर लिखा गया है इसलिए सबसे शक्तिशाली अश्वसेना का प्रधान सेनापति भी कुंतल (कौन्तेय) था

जबकि कुछ इतिहासकार काल्पनिक तोमरपाल नाम व्यक्ति से गोत्र की उत्पत्ति लिखते है जो महज एक कपोल कल्पना है। इस तोमरपाल नामक काल्पनिक राजा का इतिहास में कही भी वर्णन प्राप्त नहीं होता है|
महाभारत के युद्ध के बाद प्राचीन दिल्ली जिसको इंद्रप्रस्थ बोला जाता था इन्द्रप्रस्थ पर पाण्डववंशी जाटों का शासन था| इनकी शासन प्रणाली गणतंत्र व्यवस्था पर आधारित थी|
5 वी शताब्दी तक अर्जुन के वंशज जाटों को अर्जुनायन नाम से जाना जाता रहा है | इसके बाद इस वंश को कौन्तेय/कुंतल नाम से जाना गया  और सातवी शताब्दी में प्रथम बार अर्जुनायन (कौन्तेयो) ने खुद को तोमर कह कर संबोधित किया बाद में यह वंश तंवर नाम से जाना गया और पंजाब में तुअर नाम से जाना जाता रहा है| तुअर का अपभ्रंश होकर वर्तमान में तुर नाम से जाना जाता है |
अर्जुनायन (पांडव वंशी)  का उल्लेख  पाणिनि की अष्टाध्यायी  पंतजलि की महाभाष्य में उल्लेख मिलता है| महाभाष्य रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की मानी जाती है।
समुद्रगुप्त (335-375 ई.) जो स्वयं जाट था| समुद्रगुप्त ने अर्जुनायन का उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में किया है| पांडव अर्जुन के वंशज होने से इस वंश को अर्जुनायन कह कर अपने लेख में संबोधित किया है|

समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्त्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवा
 अर्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च
           सर्व्व-कर -दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन
डी.सी. शुक्ल के अनुसार यह अर्जुन के वंशधर है जिनको कौन्तेय और अर्जुनायन बोलते थे जिसका अर्थ अर्जुन के वंशज से है सिकंदर के हमले के समय इन वीरो ने एक संघ बनाया  जिसमे सभी गणतंत्र शक्तियां सम्मलित हुई यूनानी लेखको ने अर्जुनायनो का वर्णन अगलसी नाम से किया है
तेजराम शर्मा और अग्रवाल जी भी इन तोमर जाटों को अर्जुन के वंशज लिखते है|
विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय (380- 414 ई.) कालीन वराहमिहिर की बृहत्संहिता में अर्जुनायन और यौधयो को  उत्तरभारत का शासक माना है|
इतिहासकार बुद्धप्रकाश के अनुसार कौटिल्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र में अर्जुनायानो का वर्णन प्राजुनायक के रूप में किया है| डॉ स्मिथ अर्जुनायन के गणतंत्र को मथुरा के पश्चिमी भाग ,भरतपुर ,अलवर ,इन्द्रप्रस्थ में बताते है| कसिका के अनुसार अर्जुनायन को राजा भरत से सम्बन्ध होने से प्राच्य भारत बोला जाता था| दूसरी शताब्दी में मिले सिक्के इस बात के प्रमाण देते है की अर्जुनायन पाण्डव वीर अर्जुन के वंशज है| यह लोग मनसा देवी और वासुदेव कृष्ण के परम भक्त है|
अनुशासन पर्व में कौन्तेयो का वर्णन निम्न रूप में हुआ है
महान ऋषिश च कपिलस तथर्षिस तारकायनः,
तथैव चॊपगहनस तदर्षिश #चार्जुनायनः (XIII.4.55)
पौण्ड्रकॊ वासुथेवश च वङ्गः कालिङ्गकस
तदा आकर्षः #कुन्तलश चैव वानवास्यान्ध्रकास तदा
पांडव वंशी तोमर (अर्जुनायन ) की शासन पद्धति गणराज्य प्रणाली पर आधारित थी| यह वर्तनाम लोकतंत्र के समान ही थी|
इतिहासकार इरविन के अनुसार जाट प्रजातंत्र गणतंत्र में ज्यादा विश्वास करते है| यह चुने हुए व्यक्ति को अपना स्वामी मानते है| इसी व्यवस्था को अर्जुनायन गणतंत्र शासन प्रणाली में देखा जाता है|
गणतन्त्र क्या है -
 अर्जुनायन कौन्तेय गणराज्य (संस्कृत से; "गण": जनता, "राज्य": रियासत/देश) एक ऐसा देश होता थाजहां के शासनतन्त्र में सैद्धान्तिक रूप से देश का सर्वोच्च पद पर पांडवो के वंश  में से कोई भी व्यक्ति पदासीन हो सकता था। तोमर लोग सदा से समान नागरिक अधिकारों पर विश्वास करते है|
महाभारत के शांतिपर्व (अध्याय १०७) में गणराज्यों की विशिष्टता और लक्षणों का वर्णन है। जो किसी के अधीन न थे, न उन्हें कोई पराजित कर सका। भीष्म ने उनके गुण-दोषों की चर्चा की है। भीष्म में बताया है की लोभ और ईर्ष्या ही गणों के अंदर, जैसे कुल में, दुश्मनी उत्पन्न करते हैं। यह विनाश की जड़ है। भेद एवं द्वेष गण के पतन का कारण बनते हैं। जो अच्छे गण हैं वहाँ ज्ञानवृद्घ परस्पर सुख का संचार करते हैं। उन्होंने शास्त्रों के अनुसार धर्मनिष्ठायुक्त कानून की व्यवस्था की है। वे गण उन्नति करते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने पुत्रों और भाइयों (नागरिकों) को अनुशासन सिखाया है, उन्हें प्रशिक्षित किया है। वे कहते हैं, क्योंकि उनके यहाँ सदा सम्मेलन होते रहते हैं। उनमें जो धनवान, वीर, ज्ञानी हैं और शस्त्र-शास्त्र में प्रवीण हैं, वे अपने असहाय बंधुओं की सदा सहायता करते हैं। भय, क्रोध, विभेद, परस्पर विश्वास का अभाव, अत्याचार और आपस की हिंसा होने पर ही वे शत्रु के चंगुल में फँसते हैं। इनके लिए आंतरिक संकट ही सबसे बड़ा है। उसके सामने बाह्य संकट नगण्य है।
गण में सर्वव्यापी समता (सदृशता) होती है, जन्म से तथा कुल से। इस कारण गण किसी प्रकार तोड़े नहीं जा सकते, न शौर्य से या चालाकी से, न रूप के जाल से। शत्रु केवल भेद उत्पन्न कर फूट डालने से जीत सकते हैं। इसलिए उनकी सुरक्षा राज्य संघों में है।
जाटों की खाप(पाल) भी इसी गणतंत्र प्रणाली का सबसे बड़ा उदाहरण है| जिनका अस्तित्व वर्तमान में भी मौजूद है | 300 ईस्वी पूर्व से लेकर 500 ईस्वी तक इन अर्जुनायन कौन्तेय जाटों के साथ और भी जाटों ने गणतंत्र प्रणाली से शासन किया जैसे मालव ,यौधेय ,मद्र ,नाग आदि   
इन नागओ से प्रारम्भ में कौंतेयो का युद्ध अनवरत चलता रहता था| जो वैवाहिक संबंधो के कारन मित्रता में बदल गया नागो ने अर्जुनायन की सहायता से पंजाब को कुषाणों से मुक्त करवाया थाविजय उत्सव के रूप में बनारस में घाट का निर्माण करवाया था|
दशरथ शर्मा के अनुसार अर्जुनायन और यौधेयो ने मालवा लोगो से मिलकर कुषाणों से संघर्ष किया और उनको पराजित करने में सफलता पाई  
आधुनिक आगरा,मथुरा ,बागपत ,मेरठ ,हापुड़ शामली ,नोएडा ,दिल्ली ,मेवात ,पलवल ,फरीदाबाद  और अलवर और भरतपुर जिलों  के अधिकांश भूभाग जयपुर के क्षेत्र में विशाल अर्जुनायन गणतंत्र था, जिसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ थी|
इनकी सीमा उत्तर में यौधेय जाटों से पश्चिम मालव और नाग जाटों से मिलती थी| यौधयों का शासन बहावलपुर और वर्तमान हरियाणा ,हनुमानगढ़ ,बीकानेर क्षेत्र तक थी इन यौधयों को कर्नल टॉड ने जाट लिखा है पंजाब में मद्रक जाटों का गणतंत्र राज्य था जिसकी राजधानी स्यालकोट थी|
थानेश्वर के शासक हर्षवर्धन बैंस (606ई.-647ई.)  के समय में अर्जुनायन अपनी वीरता के लिए जाने जाते थे| उस समय तक यह लोग कौन्तेय कुंतल शब्द भी पहचान के रूप में काम में लेते थे| महाराजा प्रभाकर वर्धन बैंस  की पुत्री राजश्री गृह वर्मा की रानी थी| गौड़ राजा ने गृह वर्मा की हत्या कर राज्यश्री को कैद कर लिया सवादक नामक दूत ने यह संदेश महाराजा प्रभाकर वर्धन बैंस के बड़े पुत्र राजवर्धन बैंस को दिया राज्यवर्धन सेना लेकर युद्ध करने गया लेकिन वो धोखे से मारा गया इन्द्रप्रस्थ से युद्ध में गए कुंतल /अर्जुनायनो के अश्वरोही सैनिक ने यह संदेश थानेश्वर में हर्षवर्धन को दिया हर्षवर्धन ने सभी जाट खापो की पंचायत की जिसमे अश्वसेना का प्रधान वृहदेश्वर कुंतल इन्द्रप्रस्थ को बनाया गया हर्षवर्धन के दरबारी कवि बाण ने इस बात का उल्लेख किया है रागेय राघव के अनुसार  हर्षवर्धन के पिता ने जब साम्राज्य की स्थापना की उसी समय से इन्द्रप्रस्थ के गणतंत्री अर्जुनायन कुंतल (तोमर ) जाट उनकी सेना के प्रधान बनते हुए आये हैतोमर जाट मूल रूप से पांडव वंशी सिद्ध होते है |

तोमर मूल रूप से जाट थे

इतिहासकार जून और डॉ महक देव सिंह के प्रमाणों के आधार पर पुष्टि होती है की तोमर मूल रूप से जाट थे| किसी भी अन्य जातियों में जो तोमर मिलते है| वो मूल रूप से जाट ही थे|
तोमरो के जाट मूल होने का प्रमाण यह भी है की वो वर्तमान में भी पांडव, कौन्तेय जैसे अपने मूल नाम से भी पहचाने जाते है| जो उनकी उत्पत्ति के दौर से उनके दुवारा काम में लिए जा रहे है| जबकि दूसरी अन्य सभी जातियों में वो सिर्फ तोमर लिखते है| जो जाति बाद में बनी होती है| उस में मूल नाम का अभाव दॄष्टि गोचर होता है | जैसा की जाटों के अतरिक्त किसी भी अन्य जाति में तोमर गोत्र के लोग आज अपने मूल गोत्र कौन्तेय,पांडव का प्रयोग नहीं करते है |
सुर्जन चरित्र में दिल्ली के तोमर राजाओ को कुन्तलेश्वर कहकर सम्बोधित किया गया (श्लोक १-१०) वर्तमान में भी मथुरा के तोमर खुद को कुंतल कहलाना ज्यादा पसंद करते है|
·         पृथ्वीराज रासो और कुमारपाल जैसे तोमर कालीन ग्रंथो में जिन 36 क्षत्रिय कुलो का उल्लेख किया गया है| उन में तोमरो को पृथक से स्थान नहीं देकर जाटों में ही सम्मलित किया गया है| अर्थात –तोमरो को 36 कुलो में अलग से स्थान नहीं दिया गया है|तोमरो को एक साथ जाटों में स्थान दिया गया है|

कैप्टन दिलीप सिंह पृष्ठ 457 पर लिखते है|  विक्रमी संवत् 1337 (सन् 1280) का एक शिलालेख गांव बोहर जिला रोहतक में मिला है जिस पर लिखा हुआ है| कि हरयाणा देश व देहली पर पहले तोमरों (तंवर जाट) ने राज्य किया, फिर चौहानों ने, उसके बाद गोरी सुल्तान ने। (S. No. 598, op. cit, Journal of Asiatic Society of Bengal, Vol. 1, XLII, Pt. VI; P. 108)। इस बोहर ग्राम की स्थापना नादल सिंह तोमर ने की थी उसके वंशज आज नादल जाट कहलाते है|
·         मथुरा गजेटर पृष्ठ 336 के अनुसार दिल्ली के जाट राजा अनंगपाल तोमर ने दिल्ली से आकर सौंख को बसाया उसके वंशज जाट जाति के रूप में यहाँ निवास करते है|
राजा अनंगपाल के पूर्वपुरुष पांडव वंशी  जाट थे जो पंजाब से देहली आये। (इतिहास इंगलिश, पृ० 136 लेखक लेफ्टिनेन्ट जून)
इतिहासकार दिलीप सिंह के अनुसार राजपूतों के तोमर जाटू गोत्रों का निकास जाटों से हुआ है| राजपूत तोमरो को हरयाणा और पाटण क्षेत्र में भी जाटू बोला जाता है जो उनको जाट मूल के होने का ठोस प्रमाण है | वर्तमान में इस क्षेत्र में जाटू खाप की चौधर जाटों के पास है|

हिन्दूग्रंथ देव सहिंता में जाटों की उत्पत्ति भगवान शिव से बताई गयी है| जाटों का वर्णन शिव के गण नंदी के रूप में भी किया गया है| दिल्ली के तोमर राजाओ के सिक्को के एक तरफ नन्दी का चित्रण होना नंदी (गौ बच्छा) का उनके राज्य चिन्ह के रूप में होना उनके जाट मूल के होने की तरफ इशारा करता है|
दिल्ली के तोमर जाट राजाओ के अन्य जाट वंशो में रिश्तेदारी थी| जो उनको जाट प्रमाणित करती हैजैसे बैंस (थानेश्वर),वरिक ,बम्बरौलिया ,बालियान,ढिल्लों ,सरोहा जाट में तोमर जाट राजाओ की बेटियों और बेटो के विवाह होने के प्रमाण मौजूद है| जैसे दिल्लीपति सलकपाल तोमर का विवाह देशवाल खाप के मुखिया बेटी से हुआ तो अनंगपाल देव की बेटी गढ़ी बैराठ के विरमदेव बमरौलिया को ब्याही थी| इस विवाह के बाद उपहार मे उस को तोमर साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण स्थान तुहनगढ़ की सुरक्षा का दायित्व सौंपा अनंगपाल तोमर की द्वितीय रानी हरको देवी यदु वंशी जाटनी थी|
आई.सारा एक कनाडाई शोध छात्रा ने अपने शोध में बताया कि यूक्रेन में जाट लगभग 32 हजार की जनसंख्या में है उनकी देसी बोली को जाटली कहा जाता है इनमें तोमर गोत्र है यूक्रेन में आज जाट जाति के 70 गोत्र है| वर्तमान जनसंख्या लाख के करीब है | उज़्बेकिस्तान में भी जाट जाति निवास करती है उनकी भाषा बोली में आज भी ब्रज भाषा के शब्दों अधिकतम समावेश है| उनके गोत्र भी ब्रज के जाटों से मिलते दिलीपसिंह अहलावत ने 1991 में इस पर एक लेख प्रकाशित किया था | जबकि भारत से बाहर तोमर जाटों का मिलना उनकी प्राचीनता को सिद्ध करता है की तोमर मूल रूप से जाट थे| 
वाकआत पञ्च हज़ारा (1898) में इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) के पांडव वंशी तोमर राजाओ को जाट लिखा गया है |
पंडित दयानन्द सरस्वती ने दिल्ली के पांडुवंशी राजाओ को जाट ही माना है| इसका वर्णन सत्यार्थ प्रकाश में भी किया है|

फारस (ईरान) की प्रसिद्ध तवारीख सैरउलमुखताखरीन में इंद्रप्रस्थ के पाण्डववंशी तोमर राजाओ को जाट लिखा गया है| पुस्तक में विक्रमादित्य की पूरी वंशावली का ईरान के समकालीन राजाओ के नाम के साथ दी गयी है|
कनिघम के अनुसार दिल्ली के जाट राजा पीपलदेव तोमर की एक मुद्रा पर एक तरफ कुंतलमान कुतमान सामंत देव लिखा हुआ है| यह इस बात को प्रमाणित करती है की दिल्ली के तोमर भी मूल रूप से पांडव वंशी कुंतल जाट थे|
इतिहासकार ठाकुर देशराज जी 1964 में प्रकाशित पुस्तक बीकानेरीय जागृति के अग्रदूत के पेज 9 पर लिखते है की जब दिल्ली से तोमरो का राज्य चला गया तब कुछ तोमरो ने राजपूत संघ में दीक्षा लेली और जो राजपूत संघ में दीक्षित नहीं हुये वे जाट ही रहे।

ब्रज की लोक संस्कृति का साहित्य नामक पुस्तक के लेखक माधवप्रसाद चौबे (चतुर्वेदी) जी लिखते है दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर जाट थे |
इतिहासकार परमेश शर्मा के अनुसार तोमर जाटों से ही तोमर राजपूतों की उत्पत्ति हुई है वो लिखते है अनंगपाल तोमर जाट सम्राट था| 

वर्तमान समय में दिल्ली में राजपूत तोमर का कोई गाँव नहीं  है| जबकि जाट तोमरो के 12 गाँव ( मोहम्मदपुर ,डाबरी ,तिरखेवाला ,तोमरपुर ) मौजूद है| साथ ही तोमर वंशी अन्य जाट (सहराव और जाटू राणा ) के 30  से ज्यादा गाँव मौजूद है| पांडवो को मिले 5 गाँव इंद्रप्रस्थ ,तिलपत (फरीदाबाद,पलवल ),व्याघ्रप्रस्थ (बागपत ),स्वर्णप्रस्थ (सोनीपत) ,पानीपत आज भी वर्तमान में पाण्डववंशी तोमर जाट बहुल्य क्षेत्र है | इतिहास में तंवरहिन्द तोमरहिंद नाम से प्रसिद्ध रहा सरहिन्द (पंजाब) में भी तोमर जाटों के 25 गाँव आज भी है |
इतिहासकार ठाकुर देशराज सिंह ,हुकुम सिंह पंवार और दिलीप सिंह ,रतनलाल वर्मा जैसे इतिहासकारो ने लिखा है तोमर राजपूत ही तोमर जाटों से निकले है|निष्कासित  राज पुत्र होने के कारण तोमर जाट से राजपूत हो गए (पुस्तक राजपूतों कि उत्पत्ति का इतिहास)  जाट शब्द राजपूत शब्द से कई शताब्दियों पहले का है| राजपूत शब्द को कोई भी इतिहासकार आठवी शताब्दी से पहले का नहीं बतलाता। जबकि वर्तमान की राजपूत जाति आठवी सदी के बाद हुए आबू यज्ञ से अस्तित्व में आयी लेकिन जाट शब्द जो कि पाणिनि के धातुपाठ व चन्द्र के व्याकरण में क्रमशः ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व और ईसा से चारसौ वर्ष पीछे का लिखा हुआ मिलता है इस बात का प्रमाण है कि वह राजपूत शब्द से प्राचीन है। चाहे राजा किसी भी जाति का हो  क्षत्रिय कहलाता था | उसका पुत्र राजपुत्र कहलाता था |
प्रो.हेत सिह बघेला  उत्तरी भारत का इतिहासनामक पुस्तक मे लिखते है कि मुस्लिम विजताओ ने पराजित राजाओ को राजपूतो की संज्ञा दी
राजपूत इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत राजपूताने का इतिहास पृष्ठ 8 पर लिखते है की मुस्लिमो के आने के बाद ही शासको की जातियों के लिए राजपूत शब्द प्रयोग में आने लगा जबकि तोमरो पांडवो और जाटों का इतिहास आठवी शताब्दी से पहले भी अस्तित्व में था |
भारतीय संस्कृति के रक्षक पुस्तक में रतनलाल वर्मा लिखते है| मुस्लिमकाल आने से पहले राजपूत जाति का अस्तित्व सिद्ध करना असंभव है | जबकि तोमरो पांडवो और जाटों का इतिहास आठवी शताब्दी से पहले भी अस्तित्व में था |
इतिहासकार विलियम स्मिथ के अनुसार राजपूत प्राचीन जाट, अहीर,गुर्जर, मीणा जाति के वंशज है|
इतिहासकार अली हसन चौहान लिखते है मुस्लिमकाल  में जिस किसी भी स्थानीय व्यक्ति को विदेशी मुस्लिम बादशाहो ने जागीरे दी उसको उन्होंने राजपूत कहा इसलिए वर्तमान राजपूत जाति भिन्न भिन्न जातियों मिश्रण है |
इतिहासकार ओझा भी स्वीकार करते है की राजपूत जाति मुग़ल काल में अस्तित्व में आयी
मि.आर.जी लेथम के एथनोलोजी ऑफ इण्डियापृष्ट के एक नोट से जाट-राजपूत के सम्बन्ध में इस तरह प्रकाश पड़ता है - एक राजपूत प्राचीन धर्म का पालन करने वाला एक जाट हो सकता है।
हिस्टोरियन आर एस जून के अनुसार[1] जाट गोत्र चौहान,सोलकी (सोरौत),ग्रेवाल,तन्वर(तोमर) के कुछ लोग 12 वि सदी के आस नवीन बने राजपूत सघ मे सम्मलित  हो गए
तोमर/कुंतल जाटों के जागाओ की पोथी में वंशावली और सर्व खाप इतिहास में कुछ उदहारण ऐसे आते है जब तोमर जाट किसी कारण वश राजपूत संघ में मिल गए इन में से कुछ का  वर्णन क्षत्रियो का इतिहास (1978 ) लेखक परमेश शर्मा और जाट इतिहास लेखक महेंद्र शास्त्री (1991 ) ने भी अपनी किताबो में किया है| जैसे बागपत जिले के किशनपुर बिराल के जाट जगदीश तोमर को पंचायत ने बहिष्कृत कर दिया उसने मुज़फ्फरनगर जिले में जगदीशपुर बिराल गाँव बसाया और राजपूत जाति में शामिल हो गया | दूसरा उदाहरण महेंद्र कुमार शास्त्री और सर्व खाप इतिहास के अनुसार गोपालपुर (बागपत जिले ) के तोमर जाटों का एक समूह बुन्देलखण्ड में चला गया उन्होंने वहां शावपुर (शिवपुर ) की जागीर बनाई और राजपूतो में विवाह करके राजपूत संघ में मिल गया उसके वंशज आज तक व्य्राघप्रस्त (बागपत का प्राचीन नाम) तोमर कहलाते है|
इब्राहिमपुर के नम्बरदार के अनुसार पृथला ग्राम (पलवल) के दो सगे जाट भाई आवे (आदे) और बावे (बादे) थे| जो किसी कारणवश पृथला को छोड़ कर आधुनिक अलीगढ जिले की खैर तहसील में आ बसे और पिसावा रियासत कि स्थापना कि ।  कुछ समय बाद में छोटा भाई बादे गंगा पार चला गया और एक अलग राज बनाया उसके वंशज बदायूं जिले में राजपूत तोमर बोले जाते है| उनके बारह गांव है वहाँ जबकि अपने मूल गाम पृथला और पिसावा के आसपास वो आज भी जाट ही है|  
आज भी यह कहावत प्रचलित है की दिल्ली तो जाटों की बहु है  दूसरी कहावत भी जाटों को दिल्ली से जोड़ती है 
दिल्ली है बहादुर जाटों की, बाकी कहानियाँ भाटों की
यह कहावते इस बात के ठोस प्रमाण है की दिल्ली पर जाटों का शासन रहा है दिल्ली के तोमर /तंवर  राजवंश  जिसको अर्जुनायन और कुंतल कौन्तेय भी बोला गया है यह एक प्रसिद्ध जाट राजवंश था|         
जाटों में ऋषि गोत्र नहीं होता है ऋषि गोत्र राजपूतो में ही मिलता है क्योंकी जिस ऋषि के सानिध्य में वो अग्नि कुंड से यज्ञ दुवारा जाट ओर अन्य जातियो से उनको राजपूत सघ मे मिलाया गया वो ऋषि उन के लिये आदरनीय हो गया इसलिए तोमर जाट का कुछ भाग अग्निकुंड यज्ञ के बाद  ही अन्य जातियों  में मिल गया  इसलिए कुछ तंवर राजपूत अपना ऋषि गौत्र अत्री तो कुछ कश्यप बताता है जबकि अत्री ऋषि गौत्र राजपूत के कुछ और गौत्र का भी माना जाता है जैसे अत्री गोत्र कई राजपूत गोत्रो का ऋषि गोत्र है जैसे जादौन ,मैनपुरीया ,बाघेला




[1] History of the jat 1938  Page-140
2.पाण्डव गाथा पृष्ठ १-५८  
  
सृष्टी परमपिता ब्रम्हा से उत्पन्न हुई है इसलिए उनके बाद से पुरुवंश की पचास पीढ़ियों का वर्णन इस प्रकार है. आप दिए गए नंबरों से उनकी पीढ़ी का पता लगा सकते है.

    - कुंतल (तोमर) वंशावली
ब्रह्मा से अब तक वंशावली (पदम पुराण, मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण, वायु पुराण, जागा/भाटो की पारिवारिक पोथी के आधार पर)
ब्रह्मा
मरिचि
कश्यप
चन्द्र
वेवस्वत
एला
पुरखा
आयु
नहुष
ययाति (ययाति के देवयानि ओर शर्मीष्टा  दो पत्निया और पाच पुत्र तुर्वसु ,यदु,अनु द्रुहु,पुरु हुए)
तुर्वसु
वहि
गोभनु
त्रशम्ब
कर घम
मरुत (इस ने पुरु वन्श के पुत्र को गोद ले लिय तब से पोरव कहलाये)
सोम दत्त
बहुगुन
सयाति
I
अहयाति
I
प्रार्वचौम
I
जयत्सेन
I
अवाचीन
I
अरिह
 I
महाभौम
I
अयुतनामी

I
अक्रोधन
I
देवतिथि
I
त्रह्क्ष
I
भतिनार
I
तंसु
I
इलिंद(रविय) 
I
दुष्यंत
I
भरत
I
भुमन्यु, वितथ
I
सुहोत्र
I
हस्ती
I
विकुंडन
I
अजमीढ़
I
सवरण
I
कुरु
I
विधुर
I
अनश्या
I
परीक्षित प्रथम
I
भीमसेन
I
प्रतिश्रावा
I
प्रतिप 
I
शांतनु , देवषी,बाह्लीक
I
भीष्म चित्रवीर्य विचित्रवीर्य
         I

 पांडू
      I

युधिष्ठिर - भीम - अर्जुन - नकुल - सहदेव
अर्जुन का द्रौपदी से जन्मे पुत्र का नाम श्रुतकर्मा था द्रौपदी के अलावा अर्जुन की सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा नामक तीन और पत्नियां थीं। सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इरावत, चित्रांगदा से वभ्रुवाहन नामक पुत्रों का जन्म हुआ।
अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु हुए अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र राजा परीक्षित हुए
परीक्षित     
I

   
नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले. ययाति के पांच पुत्र थे. देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु. यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया. तर्वासु से मलेछ, दृहू से भोज तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला. अनु का वंश ज्यादा नहीं चला.
शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए. भीष्म का वंश आगे नहीं बढा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी. शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए. चित्रांगद की मृत्यु युवावस्था में ही हो गयी. विचित्रवीर्य कि दो रानियाँ थी, अम्बिका और अम्बालिका. विचिचित्रवीर्य भी संतान प्राप्ति के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन महर्षि व्यास की कृपा से उनका वंश आगे चला.
 विचित्रवीर्य के महर्षि व्यास की कृपा से अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पांडू तथा अम्बिका की दासी से विदुर का जन्म हुआ.
धृतराष्ट्र से दुर्योधन, दुःशासन, इत्यादि १०० पुत्र एवं दुशाला नमक पुत्री हुए. इनकी एक वैश्य कन्या से युयुत्सु नमक पुत्र भी हुआ जो दुर्योधन से छोटा और दुःशासन से बड़ा था. इतने पुत्रों के बाद भी इनका वंश आगे नहीं चला क्योंकि इनके समूल वंश का नाश महाभारत के युद्घ में हो गया. किन्दम ऋषि के श्राप के कारण पांडू संतान उत्पत्ति में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को दुर्वासा ऋषि के मंत्र से संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी. कुंती के धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्रदेव से अर्जुन हुए तथा माद्री के अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ. इन पांचो के जन्म में एक एक साल का अंतर था. जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन का भी जन्म हुआ.
    ४६. युधिष्ठिर के द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य एवं देविका से यौधेय हुए. भीम के द्रौपदी से सुतसोम, जलन्धरा से सवर्ग तथा हिडिम्बा से घतोत्कच हुआ. घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हुआ. नकुल के द्रौपदी से शतानीक एवं करेनुमती से निरमित्र हुए. सह्देव के द्रौपदी से श्रुतकर्मा तथा विजया से सुहोत्र हुए. इन चारो भाइयों के वंश नहीं चले. अर्जुन के द्रौपदी से श्रुतकीर्ति, सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इलावान, तथा चित्रांगदा से बभ्रुवाहन हुए. इनमे से केवल अभिमन्यु का वंश आगे चला.
 
अभिमन्यु के उत्तरा से परीक्षित हुए. इन्हें ऋषि के श्रापवश तक्षक ने काटा और ये मृत्यु को प्राप्त हुए.
 
 परीक्षित से जन्मेजय हुए. इन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया जिसमे सर्पों के कई जातियां समाप्त हो गयी, लेकिन तक्षक जीवित बच गया.
   
जन्मेजय से शतानीक तथा शंकुकर्ण  अश्वमेध हुए.

जन्मेजय
I
अश्वमेघ
I
धर्मदेव
I
मनजीत
I
चित्ररथ
I
दीपपाल
I
उग्रसेन
I
सुरसेन 

भूवनपति
I
रणजीत
I
रक्षकदेव
I
भीमसेन
I
नरहरिदेव
I
सुचरित्र
I
सुरसेन
I
पर्वतसेन
I
मधुक
I
सोनचीर
I
भीष्मदेव
I
नृहरदेव
I
पूर्णसेल
I
सारंगदेव
I
रुपदेव
I
उदयपाल
I
अभिमन्यु
I
धनपाल
I
भीमपाल
I
लक्ष्मीदेव
I
विश्रवा
I
मुरसेन
I
वीरसेन
I
आनगशायी
I
हरजीतदेव
I
सुलोचन देव
I
कृप
I
सज्ज
I
अमर
I
अभिपाल
 I
दशरथ
 I
वीरसाल
I
केशोराव
I
विरमाहा
I
अजित
 I
सर्वदत्त
I
भुवनपति
I
वीरसेन
I
महिपाल
I
शत्रुपाल
I
सेंधराज
I
जीतपाल
I
रणपाल
I
कामसेन
I
शत्रुमर्दन
I
जीवन
I
हरी
I
वीरसेन
I
आदित्यकेतु
I
थिमोधर
 I
महर्षि
I
समरच्ची
I
महायुद्ध
I
वीरनाथ
I
जीवनराज
I
रुद्रसेन
I
अरिलक वसु
I
राजपाल
I
समुन्द्रपाल 
|
गोमिल
|
महेश्वर
|
देवपाल (स्कन्ददेव)
|
नरसिंहदेव 
|
अच्युत
|
हरदत्त
|
किरण पाल
|
अजदेव
|
सुमित्र
|
कुलज
|
नरदेव
|
सामपाल(मतिल )
|
रघुपाल
|
गोविन्दपाल
|
अमृतपाल
|
महित(महिपाल)
|
कर्मपाल
|
विक्रम पाल
|
जीतराम जाट
|
चंद्रपाल
|
ब्रह्देश्वर (खंदक)
|
हरिपाल (वक्तपाल)
|
सुखपाल (सुनपाल)
|
कीरतपाल (तिहुनपाल)
|
अनंगपाल प्रथम (विल्हण देव)
|
वासुदेव
|
गगदेव
|
पृथ्वीमल
|
जयदेव
|
नरपाल देव
|
उदय राज
|
आपृच्छदेव
|
पीपलराजदेव
|
रघुपालदेव
|
तिल्हण पालदेव
|
गोपालदेव
|
सलकपाल सुलक्षणपाल
|
जयपाल
|
महिपाल प्रथम
|
कुँवरपाल (कुमारपाल)
|
अनंगपाल द्वितीय (अनेकपाल)
|
सोहनपाल
|
महिपाल द्वितीय
|
विजयपाल
|
मदनपाल
अब कुछ प्रमुख जगहों की वंशावली नीचे प्रकाशित की जा रही है|
·         बागपत को तोमर देश के नाम से भी जाना जाता है | जो दिल्ली के निकट ही है| तोमर देश के बावली की वंशावली
विल्हण देव (अनंगपाल प्रथम)-वासुदेव गगदेव पृथ्वीमल जयदेव - नरपाल देव-उदय राज-आपृच्छदेव-पीपलराजदेव-रघुपाल देव-तिल्हणपाल देव गोपालदेव-सलकपाल (सुलक्षणपाल)-महिपाल बाहुबलीसिंह करनपाल-गोपालदेव हरपाल आनंदपाल सुखपाल जगपाल बलदेवा राजपाल भरतपाल (भरतू )-कृष्णपाल-रामपाल-जयपाल- मुंशीसिंह -समुन्द्र्पाल-मामचंद-धर्मपाल- कुंवरपाल-सुल्ताना-कालूराम तेजपाल(तेजू)-रघुवीर- महीपाल- हरिराम- श्यामसिंह (श्यामा ) वीरपाल इन्द्रपाल ब्रजपाल- नवल सिंह सिंघराम-छज्जूसिंह
नोट यह वंशावली विक्रम संवत 1961 (1903 ईस्वी तक है ) जो जगाओ से प्राप्त लेख के अनुसार लिखी गयी है | महाराजा सलकपाल के 6 पुत्र और 1 पुत्री हुई 1. रामपाल तोमर, 2. महिपाल तोमर, 3. कृष्णपाल तोमर, 4. चंद्रपाल तोमर,5. हरिपाल तोमर,6. शाहोनपाल (शाहपाल) तोमर
महाराजा अनंगपाल द्वितीय इनका पोत्र (पोता/नाती ) था |
·         किशनपुर की वंशावली
बिल्हणदेव (अनगपाल सिंह तोमर )-वासूदेव -गंगदेव (गांगेय)-पृथ्वीपाल (प्रथम देव ) -जयदेव (सहदेव )-नरपाल- उदयराजदेव -आपृच्छ देव -पीपलराजदेव (वछराज )-रघुपाल (रावलु )-तिल्हणपाल देव - गोपाल देव - सलअक्शपाल, (सकपाल,सलक्षणदेव )-किशनपाल -दामोदर सिंह-रामसहाय -कृपाराम -मनसुख सिंह -नैनसुख -फतेहसिंह -शोभाराम -खेमकरण -साहबसिंह -गोपाल -शेरसिंह -कर्मसिंह -मूलचंद
मथुरा क्षेत्र के खुटेलापट्टी (तोमरगढ़) की वंशावली
मथुरा क्षेत्र में यह वंश आज भी अपने पुराने नाम पांडव .कौन्तेय से अधिक जाना जाता है|
·         सौंख के राजा हठिपाल(18 वि सदी तक की ) तक की वंशावली निम्न है
अनंगपाल प्रथम वासुदेव गगदेव पृथ्वीमल जयदेव -- नरपाल देव -- उदय राज आपृच्छदेव --  पीपलराजदेव रघुपालदेव -- तिल्हण पालदेव गोपालदेव सलकपाल/सुलक्षणपाल जयपाल कुँवरपाल (महिपाल प्रथम ) अनंगपाल द्वितीय -- सोहनपाल  -- जुरारदेव सुखपाल चंद्रपाल  -- देवपाल  -- अखयपाल हरपाल –-हथिपाल नाहर प्रहलाद सिंह (5 पुत्र (एक गोद किया)-सहजना (डूंगर सिंह )- पाला सिंह करना (करनपाल )-नौधराम ---सुरतपाल --- भीकम –- लालसिंह  -- भूरिया(भूरसिंह ) --- अमर सिंह गुलाब सिंह सुखपाल -हठी सिंह/हाथी सिंह श्याम सिंह - तोफा सिंह
अब इस वंश की  अनंगपाल द्वितीय से 28 वी पीढ़ी चल रही है| अनंगपाल द्वितीय के 2 पुत्र सोहनपाल और जुरारदेव हुए इनके कुल आठ पोत्र (पोते) हुए जिनके आज 384 ग्राम बसे हुए है |
·         मगोर्रा की वंशावली
अनंगपाल प्रथम वासुदेव गगदेव पृथ्वीमल जयदेव -- नरपाल देव -- उदय राज आपृच्छदेव --  पीपलराजदेव रघुपालदेव -- तिल्हण पालदेव गोपालदेव सलकपाल/सुलक्षणपाल जयपाल कुँवरपाल (महिपाल प्रथम ) अनंगपाल द्वितीय- सोहनपाल जुरारदेव - मेघसिंह अजितसिंह - सहमल बसेरी अहलादसिंह  - जसरथ भीकम दलेल सिंह चन्द्र सेन जगजीवन सुखपाल अनूप सिंह जय किशन अखयसिंह पदम् सिंह पैमसिंह चुन्नी जोहरीसिंह - मोहरपाल 
यह वंशावली मनसा देवी मंदिर पर शिलालेख पर अंकित है | इस वंशावली में अनंगपाल के नाती /पोता मेघ सिंह था | मेघ सिंह चार पुत्र घाटम सिंह , अजित सिंह ,जाजन सिंह ,रामसिंह  हुए इस वंश के जाजन सिंह ने कृष्ण जन्म भूमि का पुनः निर्माण करवाकर  बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त की थी|
·         भरतपुर गुनसारा की वंशावली
अनंगपाल प्रथम वासुदेव गगदेव पृथ्वीमल जयदेव -- नरपाल देव -- उदय राज आपृच्छदेव --  पीपलराजदेव रघुपालदेव -- तिल्हण पालदेव गोपालदेव सलकपाल/सुलक्षणपाल जयपाल कुँवरपाल (महिपाल प्रथम ) अनंगपाल द्वितीय- सोहनपाल जुरारदेव ज्ञानपाल(गन्नेशा)- गैंदासिंह सूरद सिंह - द्वारिकासिंह ---टुन्डासिंह---जौहरीसिंह --चिम्मन सिंह -- हुक्मसिंह --देवीरामसिंह --झम्मनसिंह --हरवीरसिह          

                                                                                            
·         सीकर जिले की विजरानिया पट्टी (तोमरपट्टी ) की वंशावली
जीतराम जाट -चंद्रपाल - ब्रह्देश्वर (खंदक) - हरिपाल (वक्तपाल) - सुखपाल (सुनपाल) - कीरतपाल (तिहुनपाल) - अनंगपाल प्रथम वासुदेव गगदेव पृथ्वीमल जयदेव -- नरपाल देव रुद्रदेव (रुद्रेण) सलवनदेव  विजयपाल लाडोसिंह जगपालसिंह  प्रथम खड्गलदेव देवराज (जगसी )- बिंद्रा आल्हा- निहालजी पनाजी (पन्ने सिंह)  बालूराम तोलाराम - हेमाराम - नरबद जी कोजुरम- हरजीराम काना राम जी(1822 ईस्वी तक)

नोट यह लेख पांडव गाथा नमक पुस्तक से लिया गया है 







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