तोमर (तंवर )जाटो की रियासत पिसावा
FORT OF PISAWA |
पिसावा रियासत अलीगढ जिले में है पिसावा पर तोमर गोत्र के जाटों का राज रहा है । पिसावा के तोमर राजाओ का मूल निकास पृथला गाव पलवल हरियाणा से है पृथला के तोमर आज तंवर भी लिखते है जबकि अलीगढ में पृथला से आये जाट तोमर ही लिखते है आज अलीगढ में पिसावा के आसपास तोमर गोत्र के 28 गॉव है इनके नाम -जलालपुर,शेरपुर,पिसावा,भैयाका , मजूपुर /मंजूपुर, सिद्धपुर,सुजावलगढ़(सुगावलगढ़), कथागिरी,डेटाखुर्द ,पोस्तीका , सिमरौठी,थानपुर,शादीपुर,बिसारा, प्रेमपुर,बलरामपुर, डेटा कलां,सैदपुर,अहरौला, छाजूपुर ,इतवारपुर(इत्वारपुर) , बिछपूरी , जलालपुर ,मढ़ा हबीबपुर,सबलपुर, बलमपुर ,रूपनगर
पृथला ग्राम (पलवल ) के दो सगे भाई आवे(आदे) और बावे(बादे)थे| जो किसी कारणवश पृथला को छोड़ कर आधुनिक अलीगढ जिले की खैर तहसील में आ बसे और पिसावा रियासत कि स्थापना कि । कुछ समय बाद में बादे गंगा पार चला गया और एक अलग राज बनाया शोयदान सिंह (शिवध्यानसिंहजी) के बेटे विक्रम सिंह तोमर और चन्दराज सिंह आज पिसावा के मुखिया है वे घोड़ों के अंतरराष्ट्रीय व्यापारी है आदे के एक पूर्वज स्वरूपसिंह सिंह ने इब्राहिमपुर(ख़ुर्जा ) गाव में जागीरी प्राप्त की थी उनके सात लड़के थे इब्राहिमपुर पर तोमर जाटो से पहले अत्री जाटो का राज था । स्वरूपसिंह जी ने अत्री जाटो को युद्ध में हराकर इब्राहिमपुर और शेरपुर की रियासत पर कब्ज़ा कर लिया तक से अत्री जाटो और शेरपुर व इब्राहिमपुर गाव के तोमरों में शादी नही होती है,
तोमर जाटों कि अलीगढ में चाबुक भी बोला जाता है जो इनकी बोक है चाबुक बोलने के पीछे दो कारण है एक तो राजा होने के कारन घोड़ो को काबू में चाबुक को काम में लिया जाता था इसलिए इनको चाबुकवाला बोला जाता था
दूसरा कारन एक बार राजा साहब अकेले शिकार पर गये थे वहाँ से लोटे समय प्यासे राजा को एक आदमी भैस चरता दिखाई दिया राजा साहब ने नसेपिने का माँगा उस ग्वाले ने कहा तू का मैरो बटेव (दामाद ) है जो तेरे को पानी पिलाऊ गुस्से से राजा ने उस कि चाबुक से पिटाई कर दी ग्वाला ब्राह्मण जाति से था तोमर जाटो ने चाबुक से इस ग्वाले ब्राह्मण को पीटा था इसलिए इन लोग को अलीगढ में चाबुक के रूप में जाना जाता है तोमर लोग पिसावा के मालिक थे। अलीगढ़ में मराठों की ओर से जिस समय जनरल पीरन हाकिम था, इस गोत्र के सरदार मुखरामजी तोमर ने पिसावा और दूसरे कई गांव परगना चंदौसी में पट्टे पर लिए थे। सन् 1809 ई. में मि. इलियट ने पिसावा के ताल्लुके को छोड़ कर सारे गांव इनसे वापस ले लिए। किन्तु सन् 1883 ई. में अलीगढ़ जिले के कलक्टर साहब स्टारलिंग ने मुखरामजी के सुपुत्र भरतसिंहजी को इस ताल्लुके का 20 साल के लिए बन्दोबस्त कर लिया। तब से पिसावा उन्हीं के वंशजों के हाथ में है। शिवध्यानसिंह और कु. विक्रमसिंह तोमर एक समय पिसावा के नामी सरदार थे। कुं. विक्रमसिंह प्रान्तीय कौंसिल के मेम्बर भी थे। शिवध्यानसिंहजी भी जाति-हितैषी थे।पिसावा रानी उषा तोमर अलीगढ से सांसद भी रही है शोयदान सिंह के बेटे चन्दराज सिंह आज पिसावा के मुखिया है वे घोड़ों के अंतरराष्ट्रीय व्यापारी है पिसावा में आज इनके पास एशिया का सबसे बड़ा घोड़ो का फार्म हाउस है
पिसावा के राजा श्यौदान सिंह तोमर
(शिवदानसिंह)
राजा श्यौदान सिंह तोमर को ही शिवदान सिंह तोमर बोला जाता हैसीकर के जाट किसानो के गोठड़ा सम्मेलन में अध्यक्षता की
गोठडा (सीकर) का जलसा सन 1938 जयपुर सीकर प्रकरण में शेखावाटी जाट किसान पंचायत ने जयपुर का साथ दिया था. विजयोत्सव के रूप में शेखावाटी जाट किसान पंचायत का वार्षिक जलसा गोठडा गाँव में 11 व 12 सितम्बर 1938 को राजा शिवदानसिंह तोमर अलीगढ की अध्यक्षता में हुआ जिसमें 10-11 हजार किसान, जिनमें 500 स्त्रियाँ थी,
पिसावा के राजा श्यौदान सिंह तोमर ने भगत सिंह को अपनी रियासत के शादीपुर गाव में शरण दी थी
शहिद ए आज़म भगतसिंह को को लाला लाजपत राय की मौत का गहरा सदमा लगा था। उनकी मौत का बदला चुकाने के लिए सांडर्स की हत्या कर दी। पुलिस भगत सिंह के पीछे पड़ी तो कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पास आ गए। पु़लिस का खतरा बढ़ा तो 1928 में टोडर सिंह तोमर ट्रेन से उन्हें अलीगढ़ ले आए। सत्याग्रह आश्रम ही उनका ठिकाना हो गया। नए शख्स को देखने के बाद पुलिस की सक्रियता बढ़ी तो उन्हें बालजीवन घुट्टी के मालिक तुलसी प्रसाद के बगीचे में रखा गया। शहीद भगत सिंह को यहां पर भी असुरक्षित लगने पर उन्हें खेरेश्वरधाम मंदिर पर रखा गया, क्योंकि उस समय मंदिर पर भक्तों का आना-जाना कम था। कुछ महीने यहां व्यतीत करने पर उन्हें अधिक खतरा दिखने लगा
तो टोडऱ सिंह तोमर ने पिसावा के जाट राजा राजा श्यौदान सिंह तोमर की मदत से जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर पिसावा रियासत के तोमर जाट बाहुल्य शादीपुर गाव भेज दिया था। उनके दाड़ी-बाल काटे और नया नाम दिया मास्टर बलवंत सिंह गांव से करीब 300 सौ मीटर दूर बंबे के किनारे स्कूल खोल दिया गया। इसमें गांव के नारायण सिंह तोमर , गांव मढ़ा हबीबपुर के रघुवीर सिंह तोमर , जलालपुर के नत्थन सिंह तोमर आदि ने पढ़ाई की। यहां शाम को कुश्ती सिखाई जाती थी। छुट्टी के दिन परिचित लोगों के घर जाकर देशभक्ति पर चर्चा करते थे। भगत सिंह यहीं पर रात को साइक्लोस्टाइल मशीन से अखबारनुमा पर्चा बगावत के नाम से छापते थे। करीब 18 महीने वे शादीपुर में रहे।
इसी दौरान भगत सिंह ने अपने परिवार से मिलने को ठाकुर साहब से इच्छा जताई तो उन्होंने पत्र लिखकर भगत सिंह की मां विद्यावती, चाचा अजरुन सिंह व स्वर्ण सिंह, शादीपुर बुलवाया। देश भगत भगत सिंह का यहां मन नहीं लगा 18 महीने रहने के बाद वो यह से खुर्जा जंक्शन तक ताँगे से गए फिर कुछ ही दिनों बाद असेंबली में बम फेंका तो उन्हें राजगुरु व सुखदेव के साथ ब्रिटिश पुलिस ने पकड़ लिया। और 23 मार्च, 1931 को ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें फांसी लगा दी गई। तभी से गांव में 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है।
दानशील जाट राजा श्यौदान सिंह तोमर (पिसावा अलीगढ )
विनोबा भावे भूदान आंदोलन के माध्यम से गरीबों के कल्याण में लगे हुए थे। वह संपन्न लोगों के पास जाते और उनसे निर्धनों व बेसहारा व्यक्तियों को आर्थिक मदद देने का निवेदन करते। इसी सिलसिले में उनको अलीगढ़ जिले के पिसावा के राजा श्यौदान सिंह तोमर ने पिसावा बुलाया
राजा श्यौदान सिंह ने भव्य जनसभा में विनोबा जी का स्वागत किया। विनोबा जी ने राजा से कहा, 'महाराज, आप मुझे गोद ले लीजिए।' इस पर जनसभा में हंसी की लहर दौड़ गई। लेकिन राजा ने विनोबा की बात को अन्यथा न लेते हुए कहा, 'मुझे स्वीकार है। मैं आपको विधिवत् गोद लेने की घोषणा करता हूं।' यह सुनकर लोग दंग रह गए। इसके बाद विनोबा जी बोले, 'पिताजी, अब आप मुझे अलग कर दीजिए। मैं आपका तीसरा पुत्र हूं। आप मुझे अपना भूमि का केवल छठवां भाग दे दीजिए।' यह प्रस्ताव सुनकर भी सभी चकित रह गए। लेकिन राजा अपने वचन के पक्के थे।
उन्होंने विनोबा जी के कथनानुसार उन्हें तुरंत लगभग दो हजार बीघा भूमि दे दी। वह भूमि लेने के बाद विनोबा जी ने उसके हिस्से कर उसे बेघर, निर्धन और बेसहारा लोगों में बांट दिया। जमीन पाने वाले जब विनोबा जी को दुआएं देने लगे तो विनोबा जी ने कहा, 'यह भूमि आपको मेरे कारण नहीं बल्कि दानशील राजा श्यौदान सिंह के कारण मिली है। उन्हें दुआएं दीजिए।' यह सुनकर अनेक लोगों ने राजा के निवास पर जाकर उन्हें धन्यवाद दिया। जब राजा को यह पता चला कि उनके द्वारा विनोबा जी को दान की गई भूमि बेघर और निर्धनों में बांट दी गई है, तो वह अत्यंत प्रसन्न हुए और जीवन भर लोगों के कल्याण में लगे रहे।
पिसावा अलीगढ के जाट राजा महेंद्र सिंह तोमर
राजा महेंद्र सिंह तोमर का विवाह भरतपुर रियासत के राजा स्व.बिजेन्द्र सिंह की पुत्री और महाराज विश्वेन्द्र सिंह जी की बहिन राजकुमारी रेणुका के साथ11 दिसम्बर1969, को हुआ
तोमर जाटों(मीठे ) कि फफूंद (बिठूर और फफूंद)रियासत
फफूंद में राजा भागमल जिनका कि दूसरा नाम बारामल्ल भी था, नवाबी शासन में फफूंद ,बिठूर और रेमल के मालिक राजा भागमल्ल थे। राजा भागमल सिंह इगलास और मांट क्षेत्र के किसी गाँव के एक मीठे तोमर गोत्र का जाट था । जिसने अपनी वीरता और रणकौशल के दम पर अवध से फफूँद और बिठूर की रियासत प्राप्त किया था अल्मासअली खां जो की जन्म से हिन्दू था और रिश्ते में भागमल का मामा था अल्मासअली खां ने भागमल को फफूंद का राजा बनने में सहायता की थी । राजा भागमल के बारे में कहा जाता है एक बार सिंध के युद्ध अभियान से लौटते समय वो पंजाब में रुके और जिज्ञासा वस कुछ समय के लिए सिख धर्म अपना लिया
राजा भागमल्ल तोमर गोत (मीठे ) के जाट थे। फफूंद जिला इटावा (वर्तमान ओरैया) में है। जसवन्त नगर तहसील जिला इटावा में मौजा और सिसहट गॉवो में तोमर गोत के जाट निवास करते हैं।फफूंद में राजा भागमल जिनका कि दूसरा नाम बारामल्ल भी था,
नवाबी शासन में फफूंद के मालिक राजा भागमल्ल थे। सन् 1774 से 1821 ई. तक यह जिला अवध के नवाबों की मातहती में रहा था। महाराजा सूरजमल जी ने एक समय इसे अपने अधिकार में कर लिया था। किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् यह अवध के नवाबों के हाथ में चला गया। नवाबों की ओर से इस जिले में तीन आमील थे - इटावा, कुदरकोट और फफूंद।
राजा भागमल्ल सिंह तोमर ने फफूंद में एक किला बनवाया था, जिसके चिन्ह अब तक शेष हैं। राजा भागमल हिन्दू-मुसलमान सभी को प्यार करते थे। उन्होंने वहां के गरीब मुसलमानों के लिए एक मसजिद भी बनवा दी थी। आज तक उस मसजिद पर जाट-नरेश राजा भागमल जी का नाम खुदा हुआ है।
भागमल ने अपने मामा अल्मास अली खान के निर्देश पर सूफी संत शाह जाफर बुखारी की दरगाह का निर्माण 1769 ईस्वी में करवाया था । राजा भागमल का शिलालेख आज भी दरगाह की इमारत में लिखा है।
संत सहजानन्द और सूफी संत शाह जाफर के सम्मान में 1775 ई. में इन्हीं दोनों सन्तों की स्मृति में वार्षिक मेले का आयोजन किया जो आज तक चल रहा है।
बाबा सहजानन्द जी और सूफी संत शाह जाफर का परिचय
शाह जाफर 1529 ई़ में बाबर की फौज में शामिल रहे सैयद युसुफ शाह जफर बुखारी और उनके भाई जलाल बुखारी फफूंद आये। उक्ते दोनों भाई बाबर और इब्राहिम लोदी के मध्य युद्ध में बाबर की ओर से 1526 ई. में पानीपत की लड़ाई में लड़े थे। ये दोनों भाई बुखारा उजवेकिस्तान से बाबर के साथ आये थे। इसलिए इनको बुखारी बोला जाता है दोनों भाई फफूंद में आकर बस गये थे। शाहजाफर यहीं बसे और सूफी वेश में रहकर इबादत की। उनके छोटे भाई जलाल मकनपुर में जाकर बसे।
जहां पर शाहजाफर इबादत करते थे उन्ही के निकट बाबा सहजानन्द जी भी तपस्या करते थे। दोनों में बड़ी मित्रता थी।1549 ई. में शाह जाफर की मृत्यु फफूंद में हुई। वहीं श्रद्धालुओं द्वारा उनका मजार बना दी और जब संत सहजानन्द जी दिवंगत हुए तो उनकी समाधि भी लगभग 100 मी. दूर स्थापित कर दी गई और भक्त गणों द्वारा दोनों की एक साथ पूजा-अर्चना होने लगी। जिसकी परंपरा आज तक चल रही है। पूजा की विशेषता यह है कि यदि कोई मुस्लिम श्रद्धालु शाह जाफर की मजार पर चादर चढ़ाने आता है तो पहले संत सहजानन्द जी की समाधि पर प्रसाद, चादर चढ़ा देगा तत्पश्चा़त मजार पर चढ़ायेगा।
भागमल ने मस्जिद का निर्माण वहां के गरीब मुसलमानों के लिए 1796 A.D. में किया । आज तक उस मसजिद पर जाट-नरेश राजा भागमल जी का नाम खुदा हुआ है।भागमल्ल की मस्जिद के समीप ही मस्जिद निर्माण में काम करने वाले मिस्त्री के बारे एक लेख में लिखा गया है की "खादिम जब्बा वल्द काशी " इसका अर्थ है की काशी नाम के बंजारे का लड़का जब्बा इस मस्जिद निर्माण का मिस्त्री था
राजा भागमल के समय में यह श्रेष्ठ व्यापारिक मण्डी थी। पुराने समय के अनेक मकान अब तक अपनी शान बता रहे हैं। सन् 1801 ई. में यह स्थान नवाब सआदतअली ने अंग्रेज सरकार को दे दिया था।
बिठूर
अवध के शासनकाल में बिठूर सूबा इलाहाबाद में एक जिला था लेकिन आज बिठूर कानपुर जिले में कानपूर से लगभग पचीस किलोमीटर पश्चिमोत्तर में अवस्थित है और अल्मासअली खां उसका आमिल था. अल्मासअली ने अपनी बहिन के लड़के भागमल सिंह तोमर को बिठूर और फफूंद की जागीर दी थी. राजा भागमल मीठे तोमर गोत्र के जाट थे बिठूर के पास एक गांव है 'रमेल' , जिसके विषय में कहा जाता है कि यह 'रणमेल' का बिगड़ा रूप है. इसी स्थान पर लव-कुश और राम की सेना के मध्य युद्ध हुआ था और बाद में पिता-पुत्र में मेल. पहले युद्ध फिर मेल… अतः इस गांव का नाम पड़ा रणमेल. जो अब रमेल के रूप में जाना जाता है.
राजा भागमल ने बिठूर में एक हवेली बनवाई थी और कई बाग लगवाये थे. अतः एक बार पुनः यह प्राचीन तीर्थ-भूमि चहल-पहल का केन्द्र बनने लगी थी
शाहमदार साहब सूफी फकीर थे इनकी दरगाह मकनपुर में नक्कारखाने की इमारत का निर्माण भी राजा भागमल ने करवाया था यह इमारत मस्जिद व रोजे के बीच है। नक्कारखाने में एक बडा भारी नक्कारा तथा कुछ देग रक्खे हुऐ है। उर्स व मेलों के मौको पर नक्कारा बजाया जाता है और देगों में खाना पकाया जाता है।
1818 में तृतीय मराठा युद्ध में हार जाने के बाद अंग्रेजों से पेंशन लेकर बाजीराव ने बिठूर में रहने का निर्णय किया था, क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें रहने के लिये केवल उत्तर भारत के किसी स्थान का चुनाव करने की ही अनुमति दी थी. अंग्रेजों ने कानपुर के समीप बिठूर में भागमल जाट की रियासत रमेल को काटा और उससे १२० गांव निकाल कर पूना से निष्कासित बाजीराव को सौंप दिए तथा उन्हें आठ लाख रुपये सालाना की पेंशन भी मुकर्रर कर दी।
bithur |
सहार (औरैया )
राजा भागमल जाट का जब फफूंद ,बिठूर और रमल पर राज्य था उनके अधीन काम करने वाले सदनसिंह और उनके पुत्र चन्दन सिंह नाम के सेंगर गोत्री राजपूत ने जाट राजा भागमल को को प्रसन्न कर सहार के 160 गाँव राजा से प्राप्त कर उनकी अधीनता स्वीकार कर लीयहां के राजा ने अंग्रेजों के काल में शासकों को प्रसन्न रखा था किन्तु मालगुजारी अदा न कर पाने के कारण कई गांव अंग्रेजों ने नीलाम कर दिये थे। इनके पुत्र चतुरसिंह ने सहार में तथा दूसरे पुत्र महिपाल सिंह ने मलहौसी में अपनी जमींदारी बनाई थी।
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