kanha veer





कान्हा रावत
एक वीर जाट जिसने धर्म के लिए कुर्बानी दी । इस वीर कि याद में हरियाणा के जिले पलवल के गांव बहीन में शहीद कान्हा रावत की मूर्ति का अनावरण कार्यक्रम फरवरी में आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्ष भरतपुर नरेश विश्वेंद्रसिंह ने की ।लेकिन आज के हिंदूवादी को देखो कान्हा रावत कि शाहदत को भूल गये है । इस वीर को सम्मान नहीं दिया क्यों कि वो जाट था इसलिए समाज को आगे आकर इन वीरो के इतिहास का प्रचार करना होगा
कान्हा रावत का जन्म और बचपन
हिंदुस्तान का इतिहास बलिदानी, साहसी देशभक्त वीरों की वीरगाथा से भरा पडा है. ऐसे वीर जिन्होंने भारतीय संस्कृति, रीति-रिवाजों और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट वीरभूमि हरियाणा वैदिक सभ्यता नैतिकता, विशाल त्याग, यज्ञों की स्थली तथा विद्वानों की कर्म स्थली रही है. यहां के रणबांकुरों ने समय-समय पर देश की रक्षा व स्वाभिमान के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी. हरियाणा के जिला फरीदाबाद के मेवाती उपमंडल हथीन के निकटवर्ती गांव बहीन भी प्राचीन संस्कृति का एक दृश्य है.
धर्म बलिदानी कान्हा रावत का जन्म दिल्ली से ६० मील दक्षिण में स्थित रावत जाटों के उद्गम स्थान बहीन गाँव में चौधरी बीरबल के घर माता लाल देवी की कोख से संवत १६९७ (सन १६४०) में हुआ. वह समय भारत में मुग़ल साम्राज्य के वैभव का था. हर तरफ मुल्ले मौलवियों की तूती बोलती थी. कान्हा ने जन्म से ही मुग़लों के अत्याचारों के बारे में सुना था. यही कारण था कि कान्हा को छोटी अवस्था से ही लाठी, भाला, तलवार, ढाल चलाने की शिक्षा दी गई.
पारिवारिक जीवन
युवा होने पर उनका विवाह अलवर रियासत के गाँव धीका की कर्पूरी देवी के साथ कर दिया गया. उनके दो पुत्र हुए लेकिन शीघ्र ही कर्पूरी देवी स्वर्ग सिधार गई. कर्पूरी देवी के चल बसने के बाद रिश्तेदारों के आग्रह पर कान्हा ने गुडगाँव जिले के ग्राम घरोंट निवासी उदयसिंह बड़गुजर की पुत्री तारावती को दूसरी जीवन संगिनी बना लिया लेकिन कान्हा के भाग्य में कुछ और ही लिखा था. जिस दिन कान्हा घरोंट से तारावती का गौना लेकर लाये उसी दिन बहीन के रावतों को मुग़लों ने घेर लिया. वीर कान्हा और तारावती अपने होने से पहले ही बेगाने हो गए. कान्हा ४४ वर्ष की उम्र में अमर पथ का पथिक बन गया.
फाल्गुन मास की अमावस्या सन् १६८४ को कान्हा रावत अपनी दूसरी शादी घर्रोट गांव से करके लाए औरंगजेब ने इसी अवसर का लाभ उठाना चाहा था. उन्होंने उसने बहीन गांव को चारों ओर से घेर लिया जब कान्हा रावत अपनी नई नवेली दुल्हन तारावती को लेकर बहीन पहुंचा तो मुगल सेना को देखकर दंग रह गया. कान्हा रावत को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए बहुत प्रलोभन दिए गए, परन्तु मात्रभूमि के मतवाले को गुलामी की जंजीरे मंजूर नहीं थी. इसलिए कंगन बंधे हाथों से मुगल सेना से भिड गया. बताया जाता है कि शाही हथियारों का मुकाबला, लाठी, फरसा, बल्लम और भालों से किया, कई दिनों तक चले इस युद्ध में जब कान्हा निहत्था रह गया तो अब्दुन नबी ने उसे बंदी बना लिया।
औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति
औरंगजेब ने ९ अप्रेल १६६९ को फरमान जारी किया- "काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं". फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया. कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे . और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार.
सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं - "मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति के फलस्वरूप मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही विशेष आघात होते रहे हैं. दिल्ली से आगरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित होने के कारण, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा है. वहां के हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया.
सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास एक नई छावनी स्थापित की थी. सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था. गोकुलसिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए. बस संघर्ष शुरू हो गया.
मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह
मुगल साम्राज्य के राजपूत सेवक भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि "दलपत विलास" के लेखक दलपत सिंह [सम्पादक: डा. दशरथ शर्मा] ने स्पष्ट कहा है, राजपूत नेतागण मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की हिम्मत न कर सके. असहिष्णु, धार्मिक, नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाने का श्रेय उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों को प्राप्त हुआ । आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे. शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषण करने वाली धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर दिया और विद्रोह का झंडा फहराया. [8] तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया
इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों का पूर्वाभास हो चुका था. गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा हिंडौन और महावन की समस्त हिंदू जनता के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी. जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो अंत में सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना लेकर जन-आक्रोश का दमन करना पड़ा. [10]
गोकला जाट ने, अथक साहस का परिचय देकर मथुरा, सौख, भरतपुर, कामा, डीग, गोर्वधन, छटीकरा, चांट, सुरीर, छाता, भिडूकी, होडल, हसनपुर, सोंध, बंचारी, मीतरोल, कोट, उटावड, रूपाडाका, कोंडल, गहलब, नई, बिछौर के पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन के बंगले पर एकत्र कर एक विशाल पंचायत बुलाई. इस पंचासत में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई. इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला जाट को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे. युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई. जंगल की आग की तरह खबर विदेशी आंक्राता औरंगजेब तक पंहुच गई. उसने अपना सेनापति शेरखान को तुंरत बहीन भेजा.
माघ माह की काली घनी अंधेरी रात में देव राज इंद्र द्वारा किसानों की फसलों के लिए बरस रहे मेघ की बूंदों, काले बादलों के बीच नागिन की तरह चमकती बिजली, जानलेवा कडकडाती शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी. बंगले पर विराजमान वृद्धों ने भारतीय संस्कृति की रीतिरिवाज के अनुसार शेरखान को आदर सहित बंगले पर बुलवाया तथा उससे आने का कारण पूछा. शेरखान शाह मिजाज से वृद्धों का अपमान करता हुआ बोला - हम बादशाह औरंगजेब का फरमान लेकर आए है. यहां के लोग सीधे-सीधे ढंग से इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं, तो तुम्हारे मुखिया को नवाब की उपाधि से सम्मानित करेंगे. खास चेतावनी यह है कि यदि तुम लोगों ने गोकला जाट का साथ दिया तो अंजाम बुरा होगा।
इतनी बात सुनकर कान्हा रावत वहां से उठे और अपनी निजी बैठक में गया और भाला लेकर वापिस शेरखान पर टूट पडा. गांव के वृद्धों ने उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे. इधर शेरखान ने भी अपने साथियों को आदेश दिया कि वे इस छोकरे को शीघ्र काबू करके बंदी बनाएं. कान्हा रावत का उत्साह देखकर उसके युवा साथी भी लाठी, बल्लम आदि शस्त्र लेकर टूट पडे. युवाओं ने उन सैनिको को वहां से भगा कर ही दम लिया. [13]
मुग़ल सेना से युद्ध
तारावती को लाने से पूर्व रावतों के पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे
हम अपना वैदिक हिन्दू धर्म नहीं बदलेंगे.
मुसलमानों के साथ खाना नहीं खायेंगे.
कृषि कर अदा नहीं करेंगे.
रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा. उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी. सन १६८४ में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया. रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया. रावत जाटों ने मुग़ल सेना के छक्के छुडा दिए. यदि फिरोजपुर झिरका से मुग़लों को नई सैन्य टुकड़ी का सहारा नहीं मिलता तो मैदान रावत जाटों के हाथ रहता. लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन रावत जाट आखिर कब तक मुकाबला करते. इस युद्ध में पांचों रावत गांवों के अलावा अन्य रावत जाट भी लड़े थे और अनुमानतः २००० से अधिक रावत वीरगति को प्राप्त हुए थे. रावत जाटों के नेता कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया.
कान्हा रावत को जिन्दा जमीन में गाड़ा
सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया. उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया. वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया. उसी जेल के आगे गढा खोदा गया. कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ. [18]
शेर पिंजरे में बंद होकर भी दहाड़ रहा था -
'जिन्दा रहा तो फिर क्रांति की आग सुलगाऊंगा' [19]
रावतों के इतिहास के लेखक सुखीराम लिखते हैं कि - कान्हा रावत के कष्टों की दास्ताँ से निर्दयी औरंगजेब का दिल भी पसीज गया. एक दिन वह प्रात काल की वेला में अजमेरी गेट की जेल गया. कान्हा रावत की हालत देख वह बोला -
"वीर रावत मैं तुम्हारी वीरता का कायल हूँ और तुम्हें माफ़ करना चाहता हूँ. तेरी युवा अवस्था है, घर में बैठी तेरी प्राण प्यारी विरह में रो-रोकर सूख कर कांटा हो गई है. तेरी माँ, बहन-भाई और रिश्तेदार बेहाल हैं. बहुत दिनों से रावतों के घर में दीपक नहीं जले हैं. किसी ने भी भर पेट खाना नहीं खाया है. तुम्हारे जैसा सात फ़ुट का होनहार जवान अपने दिल की उमंगों को साथ लिए जा रहा है. मुझे इसका अफ़सोस है. अरे पगले ! अपने ऊपर और अपनों पर रहम कर. यदि तू मेरी बात मानले तो तुझे मैं जागीर दे सकता हूँ. सेनापति बना सकता हूँ. तेरी मांगी मुराद पूरी हो सकती है. मेरे साथ चल. बाल कटवा, नहा धो और अच्छे कपडे पहन. दोनों साथ मिलकर खाना खयेंगे. अब बहुत हो चूका. तेरी हिम्मत ने मुझे हरा दिया है. अब तो दोस्ती का हाथ बढा दे." [20]
औरंगजेब की बात सुनकर वीर कान्हा रावत ने जवाब दिया था -
"बादशाह तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है. खाना ही खाना होता, जागीर ही लेनी होती तो यहाँ इस तरह नहीं आता, इतना जान माल का नुकसान नहीं होता. मैंने सुब कुछ सोच विचार कर यह करने का निश्चय किया है. तुम ज्यादा से ज्यादा मुझे फांसी लगवा सकते हो, गोली से मरवा सकते हो या जमीन में दफ़न करवा सकते हो लेकिन मेरे अन्दर विद्यमान स्वाभिमान तथा देश एवं धर्म के प्रति प्रेम को तुम मार नहीं सकते. हाँ यदि तुझे मुझ पर रहम आता है तो बिना शर्त रिहा करदे."
औरंगजेब अपमान का घूँट पीकर चला गया.
कान्हा रावत ने औरंगजेब के साथ खाना खाने से इंकार कर दिया. उसको अपना धर्म त्यागना भी स्वीकार नहीं था. उसने अब्दुन नबी (मुग़ल सेनापति) के विरोध में उठने वाले किसान-आन्दोलन को नंदराम और गोकुला के साथ मिलकर हवा दी थी. इस जाट वीर ने प्राण भय से स्वधर्म और संघर्ष नहीं छोडा था. उसने जजिया कर के खिलाफ डटकर लडाई लड़ी थी.
एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया. उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे. कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था. दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दे. तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:
"अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है. क्या तू रावतों की शान में कायरता का कलंक लगाना चाहता है. मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है. ताकि मैं शांति से मर सकूं. मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है. मैंने सोचा था कि तू रौताई (रावत पाल) का कोई हाल सुनाने आया है और मेरा सन्देश लेने आया है. लेकिन तुझे धिकार है. तू यहाँ आने से पहले मर क्यों नहीं गया. तूने मेरी आत्मा को छलनी कर दिया है."
कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर माफ़ी मांग कर वापिस गया. कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों के जाटों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया. यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली. इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली. इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत पर जुल्म बढा दिए. अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत १७३८ (सन १६८२ /सन १६८४) को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया. वह देशभक्त हिन्दू धर्म की खातिर शहीद होकर अमरत्व को प्राप्त किया. [28][29]
कान्हा रावत के बलिदान ने दिल्ली के चारों तरफ बसे जाटों को जगा दिया. चारों और बगावत की ध्वनि गूंजने लगी. यह घटना मुग़ल सल्तनत के हरास का कारण बनी.
जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है.
दिल्ली स्थित पहाडी धीरज पर आज भी वह जगह रावतपाडा के नाम से प्रसिद्ध है। कान्हा रावत को विदेशी छतरी को निर्माण कराया, जो आज भी विद्यमान है। रावत पाल के लोगों ने उनकी स्मृति गौशाला का निर्माण कराया, जहां पर हर वर्ष दो दिन का उत्सव मनाया जाता है।
यह वक्त की ही विडम्बना है कि किसी भी राष्ट्रिय स्तर के लेखक ने इस शहीद पर कलम चलाने का प्रयास नहीं किया.

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